भारतीय वास्तुशास्त्र पूर्णत: वैज्ञानिक है। आजकल भवन-निर्माण के पूर्व वास्तु विशेषज्ञ की सलाह अवश्य ली जाती है। मकान में शयन कक्ष की दिशा कौन सी हो? पाकशाला का स्थान कहां हो? हवा-पानी की अनुकूल परिस्थितियां कैसी हों? आदि बातों का निर्धारण वास्तु शास्त्र के नियमों के ही अनुसार करना चाहिए।
वास्तु शास्त्र एक प्रकार से मुहुर्त शास्त्र भी है। इसमें प्रत्येक कार्य को सम्पन्न करने के लिए महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश दिए गए हैं।
‘वृहत्ज्योतिषसार ग्रंथ में स्पष्ट कहा गया है कि अवसरोपयुक्त कथित बात ही सार्थक होती है। इसी प्रकार शुभ मुहुर्त में किया गया कार्य सफलता प्रदान करता है।
आज के युग में पानी एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। जल को जीवन भी कहा जाता है। जल से ही जीवन प्रकट हुआ है, अत: जीवन के लिए जल एक अनिवार्य उपादान है। भूमि के अंदर जल स्त्रोतों का अन्वेषण वास्तु शास्त्र के महत्व का परिचायक है। अत: आवास निर्माण के पूर्व जलोपलब्धि के साधनों पर अवश्य विचार किया जाता है।
‘वास्तु राजवल्लभ ग्रंथ में कहा गया है-
सर्शकरा ताम्रमही कषायं क्षारं धरित्रि कपिला करोता आ पाण्डुरायां लवणं प्रदिष्ट मिष्ट पयोनील वसुंधरायाम्
अर्थात् शर्करायुक्त या रेतीला, ताम्रवर्णी या रक्तिमवर्णी धरती के भीतर तिक्त या कड़वा जल होता है। इसी प्रकार कपिल वर्ण की भूमि तथा धूसर या मलिन भूमि के नीचे नमकीन या खारा जल एवं नीलकर्णी की भूमि के नीचे मधुर जल स्त्रोत होता है।
‘विश्वकर्मा प्रकाश एक प्रसिद्घ ग्रंथ है, जिसका उपयोग वास्तु नियमों के लिए किया जाता है। इस ग्रंथ में कहा गया है कि जो धरती मूंगे के रंग की होती है अथवा असितवर्णी होती है, पके हुए गूलर की तरह जिसका रंग होता है, जहां काला पत्थर मिले, जो प्रहार करने से चूर-चूर हो जाये, उसके नीचे प्रचुर मात्रा में जल होता है। ज्योतिष-विज्ञान के पुरोधाचार्य वराहमिहिर ने भूमि एवं पेड़ पौधों को देखकर जल स्त्रोतों की स्थिति का अनुमान लगाने का विशद वर्णन किया है। भूमि में जल किस प्रकार का है? कितनी मात्रा में है? कितनी गहराई में है?
आदि बातों का भी पता वराहमिहिर के सिद्घांतों के अनुसार लगाया जा सकता है। वराहमिहिर के अनुसार जिस भूमि से वाष्प या भाप निकलती हो अथवा जहां धुएं जैसा वातावरण दिखलाई दे, वहां सात हाथ अर्थात् साढ़े दस फुट नीचे प्रचुर मात्रा में जल प्राप्त होता है। इसी प्रकार जिस स्थान पर शहद या घृतवर्णी पत्थर मिलें, वहां भी कम गहराई में अधिक जल मिलता है।
पेड़-पौधों को देखकर भी भूमिगत जल स्त्रोतों का अनुमान लगाया जाता है। कहा गया है कि जिस धरती में वृक्षों, पौधों, लताओं के पत्ते चिकने एवं छिद्र रहित हों अथवा जहां पाटल (गुलाब), खजूर, अर्जुन एवं दूध वाले वृक्ष या पौधे हों, वहां साढ़े दस हाथ अर्थात् सोलह फुट नीचे जल स्त्रोत होता है।
कुछ स्थानों पर प्राय: जलाभाव होता है। ऐसे स्थानों पर यदि जामुन का वृक्ष हो एवं उसके पत्ते और फल विकृत न हों, उसके उत्तर दिशा में तीन हाथ (साढ़े चार फुट) दूर लगभग सत्ताईस फुट नीचे खारे जल का स्त्रोत होता है। भटकटैया का पौधा यदि श्वेत पुष्पों से युक्त हो तो उसके लगभग सोलह फुट नीचे प्रचुर मात्रा में मीठा जल स्त्रोत होता है।
आधुनिक सभ्यता के युग में कूपोत्खनन प्राय: संभव नहीं होता। उसके स्थान पर नलकूप (ट्यूबवेल) का उत्खनन करवाया जाता है। ऊपर जल-स्त्रोतों की उपलब्धि के बारे में जितनी बातेें कही गई हैं, सभी नल कूप निर्माण के संदर्भ में भी लागू होती हैं।
भवन परिसर के भीतर जल की स्थिति कैसी है? इस संबंध में वास्तु शास्त्र में व्यापक दिशा-निर्देश दिए गए हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि मकानों के ईशान कोण में उत्तम जल स्त्रोत होता है। अत: ईशान कोण में जलागार (वाटर टैंक) का निर्माण करवाया जाता है। इस स्थान को हल्का रखा जाता है। अत: इसके ऊपर जलागर (ओवर टैंक) का निर्माण नहीं करवाना चाहिए। मकान के मुख्य द्वार के ठीक सामने कूपोत्खनन अथवा जलागार का निर्माण अशुभ माना जाता है। ठीक बीचों-बीच अर्थात् अग्निकोण में भी जलागार का निर्माण उचित नहीं माना जाता है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है कि वातव्य कोण में जलागार होने से घर में चोरियां होती हैं। घर के आसपास की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि कीचड़ नहीं बनना चाहिए। इसे भी घरवालों के लिए एक अशुभ लक्षण माना जाता है।
वास्तु शास्त्र का ज्योतिष शास्त्र से घनिष्ठ संबंध हैं। दोनों ही शास्त्र एक दूसरे के अनुपूरक कहे जा सकते हैं। गृहस्वामी की कुंडली के आधार पर भी जल स्त्रोतों की उपलब्धि का अनुमान लगाया जाता है। यद्यपि जल या रस का कारक ग्रह शुक्र का माना गया है, किंतु वास्तुशास्त्र में जल की स्थिति के लिए गृहस्वामी की कुंडली में चंद्रमा की स्थिति देखी जाती है।
मेष लगनी जातक के चतुर्थ भाव कर्क राशि में, यदि वहां चन्द्रमा विराजमान हो तो ऐसे व्यक्ति के मकान की उत्तर दिशा में पुष्कल जल मिलता है। इसी प्रकार यदि किसी का कर्क या वृष लग्न हो और लग्न में ही चन्द्रमा हो तो ऐसे व्यक्ति के मकान की पूर्व दिशा में उत्तम जल-स्त्रोत होता है। इसी प्रकार यदि किसी का कर्क लग्न हो और अष्टम भाव में चन्द्रमा स्थित हो तो नेर्ऋत्य कोण में जल होता है। अत: वहीं जलागार बनवाना चाहिए।
मेष लग्न हो और अष्टम भाव में चन्द्रमा हो तो अग्निकोण में जलागार कदापि नहीं बनवाना चाहिए। इससे गृह स्वामी को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है।
अग्निकोण में यदि जलागार निर्मित हो ही गया हो और वहां दुर्गंधयुक्त, अनुपयोगी जल मिलने लगा हो तो उसकी शुद्घि के उपाय भी वास्तुशास्त्र में बतलाए गए हैं। कहा गया है-
अंजनमुस्तो शीरै: सरोजकोशल कामलक चूर्णे:।
कलकफ समायुक्तै योग कूपे प्रदातण्य:॥
कलुब कटक लवण पिरस सलिल व सुगंधि भवेत्।
तदकेन भवल्यभल सुरसं सगांधि शुणैश्चरैच्चयुतम॥
इसका भावार्थ है-अंजन (कुटकी या कृष्ण कपास) इन सभी का चूर्ण कर कटकफल (निर्मली का बीज) में मिलाकर कुएं या जलागार में डालने से मैला, कडुआ, नमकीन, बिना स्वाद के दुर्गंध युक्त जल के सभी विकार नष्ट हो जाते हैं और स्वादिष्ट तथा सुगंधियुक्त जल की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार वास्तु शास्त्र के नियमों का पालन कर आधुनिक युग में, जबकि कालोनी-सभ्यता का तेजी से विकास हो रहा है, हम जल संबंधी अपनी समस्याओं का निराकरण कर सकते हैं।
विजय कुमार शर्मा – विभूति फीचर्स