आज फिर कर्ण ने श्रीकृष्ण का दिया विकल्प ठुकरा दिया। अपनी उदारता भी दिखाई। कृष्ण चकित रह गए। वह कर्ण को समझा रहे थे-मेरी मानो! मैं आज ही, इसी वक्त तुम्हारा अभिषेक कर देता हूं। तुम पांडव पक्ष में आ जाओ।
युधिष्ठिर तथा अन्य भाई तुम्हारे आदेश का पालन करेंगे। युवराज मानेंगे। यदि ऐसा हो जाता है तो दुनियां की भाषा ही बदल जाएगी। लोग कहेंगे पांडव पांच नहीं, छ: हैं।
यदि मैं आप की बात मान जाता हूं तो यह मित्राघात होगा। दुर्योधन मेरा मित्र है। मैं उसी के साथ जीना व मरना चाहता हूं। एक मेरी प्रार्थना भी है। आप पांडवों को कभी न बताएं कि मैं उन का भाई हूं।
क्यों? पता चलने दो। इस से क्या अंतर पड़ता है।
पड़ता है अन्तर प्रभु ! पड़ता है। युधिष्ठिर को सत्ता पाने का कोई लालच नहीं। जब वह जान जाएंगे कि मैं उन से बड़ा हूं, उनका भाई हूं तब तो वह जिद करने लगेंगे कि कर्ण ही गद्दी पर बैठे। वही इस का अधिकारी है। फिर मुझे बिना युद्ध किए स्वत: ही राज्य मिल जाएगा तथा मेरा परम मित्र होने के नाते दुर्योधन ही इस राज्य का स्वामी होगा। ऐसा मैं नहीं चाहता।
पांडव धर्म का पक्ष लेकर चल रहे हैं। जीत उन्हीें की होनी चाहिए। मेरा मतलब, धर्म की.. चाहे कुछ भी हो, मुझे तो दुर्योधन का साथ देना है। युद्ध तो मैं सदा पांडवों के विरूद्ध तथा कौरवों के पक्ष मैं ही लडूंगा। मन से यह भी चाहूंगा कि विजय धर्म की हो क्योंकि पांडव धर्म पक्ष ले कर चल रहे हैं।
– सुदर्शन भाटिया