हमारा धर्म कहता है कि तुम किसी के प्रतिस्पर्धी नहीं हो, तुम औरों के सहधर्मी हो। तुम्हें औरों के साथ-साथ चलना है, उनके साथ-साथ रहना है। हमें एक-दूसरे की छातियों पर चढ़कर मंजिल नहीं पानी है। हमें अपनी मंजिल पाने के लिए दौड़ते ही नहीं रहना है। हम तो स्वयं अपने आप में ही मंजिल हैं, स्वयं अपने आप में ही सुख स्वरूप हैं।
वास्तव में मंजिल वही थी, कदम उठाया था जहां से पहला। मंजिल कहीं बाहर नहीं, हमारे अपने भीतर है। बस यही विद्या हमें हमारा धर्म सिखाता है।
हम महापुरूषों का स्मरण करते हैं। भारत के उन सत्पुरूष महामानवों को जिनका स्मरण मात्र ही चित्त में पावनता का संचार कर देता है। दूसरों के श्रेष्ठ को धारण करना, स्वीकार करना यह मनुष्य की गरिमा होती है, परन्तु अपने श्रेष्ठ को भूल जाना प्रमाद होता है, आत्महीनता होती है।
इसलिए मेरा जो अपना श्रेष्ठ है, जो मुझे मेरे पूर्वजों से मिला, मेरे देश की माटी के सौंधेपन से मिला, जो कपिल-कणाद जैसे ऋषियों की परम्परा से मिला और सबसे सुन्दर जो मिला वह भारत की धरती, जिस पर जन्में ऋषियों के माध्यम से पौने दो अरब वर्ष पूर्व सृष्टि के प्रारम्भ में परमपिता परमात्मा ने चार वेदों के रूप में अपना समस्त ज्ञान मानव जाति के लिए दिया।