Sunday, April 27, 2025

आर्मी हॉस्पिटल में पहली बार कम चीरफाड़ वाली ग्लूकोमा सर्जरी सफलतापूर्वक संपन्न

नई दिल्ली। पहला और अनोखा कदम उठाते हुए, दिल्ली के आर्मी अस्पताल (रिसर्च एंड रेफरल) के नेत्र रोग विभाग ने पहली बार थ्री-डी माइक्रोस्कोप की मदद से बेहद सूक्ष्म और कम घाव वाली ग्लूकोमा सर्जरी सफलतापूर्वक की है। रक्षा मंत्रालय के अनुसार, यह तीन-आयामी दृश्य प्रणाली आंखों की सर्जरी में बहुत मददगार है, जैसे कि भेंगापन, मोतियाबिंद, कॉर्निया, ग्लूकोमा और रेटिना से जुड़ी समस्याओं के इलाज में।

इस तकनीक में विशेष थ्री-डी चश्मे और 55 इंच के 4के अल्ट्रा-एचडी डिस्प्ले का उपयोग किया जाता है। इस पद्धति के कई फायदे हैं, जैसे पारंपरिक माइक्रोस्कोप के मुकाबले सर्जरी में कम समय लगता है, जटिलताएं कम होती हैं, रोशनी की जरूरत कम हो सकती है, आंखों की रोशनी पर बुरा असर कम हो सकता है, और कठिन परिस्थितियों में भी सर्जरी करना आसान हो जाता है। इसके अलावा, डॉक्टरों और नर्सों को भी इस तरीके में सहजता रहती है। मंत्रालय ने कहा कि यह कदम यह दिखाता है कि भारतीय सेना अपने मरीजों को सर्वोत्तम चिकित्सा सुविधाएं देने के लिए हमेशा प्रतिबद्ध है। यह सुविधा अस्पताल में आंखों के इलाज की क्षमताओं को और मजबूत करेगी। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि 40 वर्ष की उम्र के बाद हर व्यक्ति को नियमित रूप से आंखों की जांच करानी चाहिए ताकि ग्लूकोमा नामक बीमारी से दृष्टि हानि को रोका जा सके।

ग्लूकोमा एक ऐसी बीमारी है जो अक्सर बिना किसी लक्षण के धीरे-धीरे अंधापन ला सकती है। एम्स, नई दिल्ली के आर.पी. सेंटर के प्रोफेसर और ग्लूकोमा सेवा विभाग के प्रमुख डॉक्टर तनुज दादा ने हाल ही में कहा कि ग्लूकोमा का समय रहते पता चलना बहुत जरूरी है। अगर समय पर इलाज न हो तो यह स्थायी अंधापन का कारण बन सकता है। जो लोग मधुमेह (डायबिटीज), उच्च रक्तचाप (हाइपरटेंशन) से पीड़ित हैं, या जिनके परिवार में किसी को ग्लूकोमा रहा है, उन्हें इस बीमारी का अधिक खतरा होता है। इसके अलावा, जो लोग स्टेरॉयड दवाइयां जैसे क्रीम, आई ड्रॉप्स, गोलियां या इनहेलर का लंबे समय तक उपयोग करते हैं या जिनकी आंख में कभी चोट लगी हो, वे भी अधिक जोखिम में रहते हैं। कई अध्ययनों और अस्पतालों के आंकड़ों के अनुसार, भारत में ग्लूकोमा के कारण अंधापन तेजी से बढ़ रहा है, जिसका मुख्य कारण जागरूकता की कमी और बीमारी का देर से पता चलना है। भारत में करीब 90 प्रतिशत मामलों में यह बीमारी समय पर पकड़ में नहीं आ पाती।

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