महामना पं. मदन मोहन मालवीय प्रखर राष्ट्रवादी और उच्च कोटि के देशभक्त थे। देश की स्वतंत्रता, राष्ट्र के गौरव की वृद्धि तथा जनता की सर्वांगीण उन्नति उनके मुख्य लक्ष्य थे। वे भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र और संप्रभु देश के रूप में देखना चाहते थे। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेकर 35 साल तक कांग्रेस की सेवा की। उन्हें सन्? 1909, 1918, 1930 और 1932 में कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। वे एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्हें चार बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था।
मदन मोहन मालवीय को महात्मा गांधी अपना बड़ा भाई मानते थे और उनकी नेतृत्व शैली की जमकर प्रशंसा करते थे। महात्मा गांधी ने ही मालवीय को ‘महामना की उपाधि दी थी। मालवीय भारत के पहले और अन्तिम व्यक्ति थे जिन्हें ‘महामना की सम्मानजनक उपाधि से विभूषित किया गया। भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन ने मालवीय को ‘कर्मयोगी’ का दर्जा दिया था।
बालक मदन मोहन का जन्म 25 दिसम्बर, 1861 को तीर्थराज प्रयाग में हुआ। इनके पिता पं. ब्रजनाथ संस्कृत के विद्वान तथा राधाकृष्ण के अनन्य भक्त थे। माता मूना देवी स्वभाव की सरल और हृदय की कोमल थीं। मदन मोहन को पाँच वर्ष की आयु में विद्यारंभ कराया गया। उन्होंने धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला में संस्कृत, धर्म और शारीरिक शिक्षा पाई। फिर वे धर्म प्रवद्र्धिनी पाठशाला के विद्यार्थी बने। प्रयाग में खुले गवर्नमेण्ट हाईस्कूल से उन्होंने एन्ट्रेंस तथा म्योर सेन्ट्रल कॉलेज से एफए की परीक्षा पास की। कलकत्ता विश्वविद्यालय से विशेष योग्यता के साथ बीए की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मालवीय ने सरकारी उच्च विद्यालय में अध्यापक का पद स्वीकार कर लिया, मगर सरकारी नौकरी उन्हें बाँधे नहीं रख सकी। तीन वर्ष बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और राष्ट्रसेवा के यज्ञ में शामिल हो गये।
अब मालवीय का सामाजिक-राजनीतिक कार्य क्षेत्र काफी विस्तृत हो गया था। वे देश को राजनीतिक नेतृत्व देने के लिए तैयार थे। एक राजनेता और स्वतंत्रता सेनानी के रूप में मालवीय के जीवन की शुरुआत वर्ष 1886 में कलकत्ता में दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में हिस्सा लेने के साथ हुई। इस अधिवेशन में मालवीय के भाषण ने राष्ट्रीय नेताओं को काफी प्रभावित किया। महाराज श्रीरामपाल सिंह ने उनसे साप्ताहिक समाचार पत्र ‘हिंदुस्तान का संपादक बनने की पेशकश की।
ढाई वर्ष तक संपादक पद की जिम्मेदारी संभालने के बाद एल.एल.बी. की पढ़ाई के लिए मालवीय इलाहाबाद वापस चले आए और 1891 में एल. एल. बी. की परीक्षा उत्तीर्ण कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे और सर्वाधिक प्रतिभाशाली वकील के रूप में ख्याति अर्जित की। 1911 में अपने 50वें जन्मदिन पर उन्होंने अपनी कानूनी प्रैक्टिस छोड़ दी ताकि समर्पण भाव से देश की सेवा कर सकें हालांकि 1924 में चौरी चौरा की घटना के बाद मालवीय ने एक बार फिर वकील का अपना गाउन पहन लिया। चौरी चौरा मामले में सेशन कोर्ट ने 170 लोगों को फांसी की सजा सुनाई थी। मालवीय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में उनका बचाव किया और दमदार पैरवी की बदौलत 155 लोगों को फांसी से बचाने में सफल रहे। शेष 15 लोगों की सजा को भी मौत से आजीवन कारावास में बदल दिया गया।
मालवीय ने पत्रकार के रूप में वर्ष 1907 में हिंदी साप्ताहिक ‘अभ्युदय की शुरुआत की जिसे वर्ष 1915 में दैनिक बना दिया गया। जब ब्रिटिश सरकार ने 1908 में समाचार पत्र (अपराधों के लिए प्रोत्साहन) अधिनियम और भारतीय प्रेस अधिनियम, 1910 को प्रख्यापित किया तो मालवीय ने इन अधिनियमों के खिलाफ इलाहाबाद में अखिल भारतीय सम्मेलन का आह्वान किया तथा पूरे देश में अभियान को प्रभावी बनाने के लिए 1909 में एक अंग्रेजी दैनिक ‘लीडर शुरू किया जहां वे संपादक और अध्यक्ष रहे। इसके अलावा वर्ष 1910 में हिंदी मासिक पत्रिका ‘मर्यादा भी शुरू की थी।
एशिया के सबसे बड़े आवासीय विश्वविद्यालय के संस्थापक
महामना मूलत: एक शिक्षाविद् और अध्यापक थे। वे शिक्षा को राष्ट्र की उन्नति का अमोघ अस्त्र मानते थे। भारत राष्ट्र की नींव को मजबूत करने हेतु वे शिक्षा का प्रचार-प्रसार चाहते थे। अपने सपनों एवं उद्देश्यों को साकार रूप देने के लिए महामना ने काशी में हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। उन्होंने विश्वविद्यालय निर्माण में चंदे के लिए पेशावर से लेकर कन्याकुमारी तक की यात्रा की थी। 16.5 किमी में फैला बीएचयू आज एशिया का सबसे बड़ा आवासीय विश्वविद्यालय है और दुनिया के सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से एक है जिसमें चौदह संकाय और सौ से भी अधिक विभाग हैं और 40,000 से अधिक छात्र पढ़ते हैं। इससे पहले मालवीय ने 1901 में चंदा इक_ा कर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के म्योर सेन्ट्रल कॉलेज में 230 कमरों के विशाल छात्रावास का निर्माण कराया था। उन्होंने सन् 1904 में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन और बालकृष्ण भट्ट के सहयोग से गौरी पाठशाला की स्थापना की।
हिन्दी के समर्थक, छुआछूत के विरोधी
मालवीय राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रबल समर्थक थे। उनका मानना था कि हिन्दी के ज्ञान के बिना देश की उन्नति संभव नहीं है। उन्होंने सार्वजनिक रूप से हिन्दी आन्दोलन का नेतृत्व कर सरकारी कार्यों में हिन्दी के प्रयोग की अनुमति दिलाई तथा उसे सरकारी दफ्तरों में स्वीकृत कराया। छुआछूत को दूर करने और हरिजन आंदोलन को दिशा देने में मालवीय ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दलितों के अधिकार और जातिवाद का बंधन तोडऩे के लिए उन्होंने लंबा संघर्ष किया। उनकी पहल के बाद ही कई हिंदू मंदिरों में दलितों को प्रवेश मिल पाया।
‘सत्यमेव जयते को बनाया लोकप्रिय
मदन मोहन मोहन मालवीय ने ही ‘सत्यमेव जयते को लोकप्रिय बनाया जो अब राष्ट्रीय आदर्श वाक्य बन गया है और इसे राष्ट्रीय प्रतीक के तौर पर अंकित किया जाता है। हालांकि इस वाक्य को हजारों साल पहले उपनिषद में लिखा गया था, लेकिन इसे लोकप्रिय बनाने के पीछे मदन मोहन मालवीय का हाथ है। उन्होंने 1918 के कांग्रेस अधिवेशन में इस वाक्य का प्रयोग किया था। उस वक्त वे कांग्रेस के अध्यक्ष थे।
भारत को स्वतंत्र देखने की तमन्ना रही अधूरी
देश की आजादी के लिए मालवीय बहुत आशान्वित रहते थे। जीवन पर्यन्त वे देश, समाज और राष्ट्र की सेवा करते रहे। समाजसेवा का शायद ही ऐसा कोई पक्ष हो जो उनके कार्य परिधि में न आया हो। एक बार उन्होंने कहा था, ‘शायद मैं ज्यादा दिन तक न जीऊं और यह कसक रहे कि भारत अब भी स्वतंत्र नहीं है, लेकिन फिर भी मैं आशा करूंगा कि मैं स्वतंत्र भारत को देख सकूं। आजादी मिलने के एक साल पहले 12 नवंबर 1946 को मालवीय का निधन हो गया। 24 दिसम्बर 2014 को मरणोपरांत उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न से सम्मानित किया गया।