अरावली पर्वत श्रृंखला की उपत्यकाओं में लगभग 250 फीट की ऊंचाई पर माँ बिजासन देवी मंदिर अवस्थित है। देवी माँ जगतजननी का बिजासन स्वरूप वहाँ पर्वत शिखर को विदीर्ण कर प्रकट हुआ। अत: यह सिद्धपीठ स्वयंभू है। श्री दुर्गासप्तशती में सात सौ श्लोक हैं, तद्नुसार ही पर्वत शिखर पर माता के समक्ष पहुंचने के लिए नीचे से ऊपर तक सात सौ सीढिय़ां चढऩी पड़ती हैं। श्रद्धालु भक्त अथवा साधक एक-एक श्लोक बोलें और एक-एक सीढ़ी चढ़ें, माता मनोकामना अवश्य पूर्ण करती हैं।
राजस्थान के जनपद कोटा के अन्तर्गत तहसील इन्द्रगढ़ में उक्त देवी माता का स्थान होने से बहुधा लोग उन्हें इन्द्रगढ़ की बिजासन माता भी कहते हैं। इन्द्रगढ़ एक राजतंत्रीय छोटा सा राज्य रहा था। राजतंत्रीय काल में ही यहां नाथ योगी बाबा कृपानाथ महाराज की तपस्या से ही प्रसन्न होकर माता बिजासन यहां पर्वत विदीर्ण कर प्रकट हुई थीं। नाथ सम्प्रदाय शैव धर्म मत होने पर भी देवी माँ की प्रेरणा से कश्मीर से समागत बाबा जी ने माता को रिझाने के लिए घोर भयानक वन में अहर्निश तपस्या की थी।
यहाँ प्रमुख रूप से माँ का बड़ा विग्रह भी है। पर्वत शिखर पर जहाँ माँ के विग्रह विराजमान हैं, वहां एक कन्दरा सी बन गई है, जो माँ के विदीर्ण होकर निकलने का प्रमाण है। मंदिर के ऊपर झूलती हुई बड़ी-बड़ी चट्टानें आज भी विद्यमान हैं। अत: बिजासन माता का श्रीविग्रह स्वत: प्रादुर्भूत है। मूर्ति भंजक आततायियों के कारण विग्रह को चाँदी के वरक आदि के लेपन से गोपन कर रखा है।
इन्द्रगढ़ रेलवे स्टेशन से 07 किलोमीटर की दूरी पर और कोटा लालसोट राजमार्ग से 02 कि.मी. की दूरी पर माता बिजासन पर्वत स्थित है। इन्द्रगढ़ मुंबई-दिल्ली मार्ग पर कोटा से लगभग 80 कि.मी. और सवाई माधोपुर से लगभग 40 कि.मी. की दूरी पर है। इन्द्रगढ़ एक बड़ा कस्बा है, अनुमण्डल मुख्यालय है। सभी सुविधाओं पानी बिजली, धर्मशाला तथा आवागमन के साधनों से युक्त है। राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं गुजरात से दर्शनार्थियों की संख्या अधिक पहुंचाती है। आश्विन एवं चैत्र नवरात्रों में तो मेला सा दृश्य दृष्टिगोचर होता है। आने-जाने वालों का रेला लगा रहता है। अन्य दिनों में भी अच्छी संख्या यहां पूजा व अर्चना हेतु पहुंचती है।
राजतंत्र काल में ही यहाँ के राजाओं ने माँ भगवती बिजासन देवी के प्राकट्य स्थान पर ही भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था और पर्वत के ऊपर आने के लिए 700 सीढिय़ां भी बनवाई थीं, बीच-बीच में विश्राम स्थल भी बनवाए। लगभग 15-20 फीट चौड़ी सीढिय़ों के दोनों ओर छायादार वृक्ष भी लगवाए। यहां पहले रोग नाशक जड़ी-बूटियां बहुतायत से थीं और माँ की कृपा से शारीरिक व्याधियों सहित विकृतियों से लोग मुक्त हो जाते थे। तभी अम्बर-आमेर (जयपुर) नरेश भी नि:रोग होने के लिए यहां पहाड़ (पर्वत) के नीचे अपने लाव-लश्कर के साथ तम्बू लगाकर अनेक दिनों तक रहे थे।
हाड़ा क्षत्रिय राजपूतों का क्षेत्र हाड़ौती प्रांत कहलाता है, जिसमें कोटा, बारां, बून्दी एवं झालावाड़ सम्मिलित हैं। इस प्रांत के अलावा दूसरे सटे मध्यप्रदेश और गुजरात प्रदेश के नवविवाहित जोड़े (वर-वधू) अपने चिरस्थाई, सुखी और समृद्ध दाम्पत्य जीवन के लिए माता के दरबार में उपस्थित होकर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। मुण्डन संस्कार के लिए भी लोग अपने बच्चों को लेकर पहुंचते हैं। नवरात्रि में अष्टमी एवं नवमी के दिनों में रेलवे स्टेशन से मां बिजासन स्थल तक सात कि.मी. का रेला माता के जयकारे के साथ चलता है, यह दृश्य बड़ा ही अद्भुत रहता है। इस मार्ग में बीच-बीच में श्रद्धालुओं द्वारा भोजन प्रसादी के भण्डारे लगाए जाते हैं। यात्री जन भरपेट भोजन करते हैं।
बीच के समय में यहां बकरा बलि एवं पाड़ा बलि होने लगी थी। इनकी बोटियाँ करके महाप्रसाद के नाम पर बांटा जाता था, परन्तु स्वनाम धन्य दिवंगत श्रीमंत शम्भू सिंह कौशिक ने यहाँ शिविर लगाकर सात्विक धर्मप्रेमी भक्तों की सहायता से पशु बलि प्रथा को बन्द करवा दिया। नारियल बलि ही मान्य है। अन्य जो सर्वत्र देवी माँ के लिए जो फूल प्रसाद चुनरी आदि का चढ़ावा चढ़ता है, वह यहाँ भी चढ़ता है।
बाबा कृपानाथ जी के समय में ही गुजरात से एक क्षत्रिय सोलंकी राजपुत्र यहां पहुंचकर बाबाजी के शरणागत हुआ। वह उनकी तथा स्थान की खूब सेवा करता। बाबा ने उसे अपना शिष्य बना लिया। पश्चात उसका विवाह भी योग्य कन्या से करा दिया। तब से ही उसके वंशज निरंतर नाथ सम्प्रदाय के नाथ एवं देवी माता की सेवा-पूजा करते आ रहे हैं तथा देवी माता पर जो भी भेंट चढ़ावा चढ़ता है, उस पर उन्हीं का एकाधिकार है।
इन्द्रगढ़ राजतंत्रीय राज्य के राजाओं के शासनकाल में राज्याश्रय प्राप्त भट्ट चौबीसा ब्राह्मण भी माता का विधिवत षोडशोपचार पूजन कर दुर्गा सप्तशती का पाठ किया करते हैं।
इन्द्रगढ़ की बिजासन माता का यह मंदिर ऐसे स्थान पर है, जहां जाने की बार-बार इच्छा होती है। पर्वत शिखर पर मां बिजासन देवी मंदिर स्थल से चारों ओर का दृश्य बड़ा ही मनोहारी है। दूर-दूर तक अरावली पर्वत श्रृंखला के पहाड़ व वन देखते ही बनते हैं। मन को शान्ति मिलती है। आत्मा तृप्त हो जाती है।
अनेक कारणों से अब तो कोटा का महत्व बहुत बढ़ गया है। अनेक प्रदेशों व प्रांतों के लोग वहां पहुंचते रहते हैं। ऐसे में एक बार इन्द्रगढ़ की यात्रा चिरस्मरणीय होगी।
स्वामी गोपाल आनन्द बाबा – विनायक फीचर्स