भारतीय संस्कृत वांगमय के अंतर्गत शिव आगम शास्त्रों की बड़ी महिमा है। उनके अनुसार भारत वर्ष के दक्षिणी भू-भाग क्षेत्र में पांच ऐसे स्थान हैं जिन्हें पंचलिंग क्षेत्र कहा जाता है। इन पांचों स्थानों में पंचतत्व (क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा) पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु तत्वों के प्रतीक लिंग विराजमान हैं। इनके दर्शन, इनकी उपासना मोक्षदायी है। इन पंचभूत लिंगों की आराधना निम्नलिखित मंत्रों से आराधना की जाती है।
‘ऊं शर्वाय क्षिति मूर्तये नम:।’
‘ऊं भवाय जलमूर्तये नम:।’ ‘ऊं रुद्राय अग्निमूर्तये नम:।’ ‘ऊं उग्राय वायुभूर्तय नम:।’ ‘ऊंभीमाय आकाशमूर्तये नम:।’
ये पांच स्थान हैं- 1. कांचीपुरम (कांचीवरम) 2. जम्बुकेश्वर, 3. अरुणाचलेश्वर, 4. कालहस्ती, 5. चिदम्बरम।
1. कांचीपुरम- वर्तमान तमिलनाडु राज्य के पूरब में समुद्र के किनारे, जहां कामकोटि पीठ विराजमान है। कांचीपुरम या कांचीवरम कहलाता है। यहां शिवकांची व विष्णुकांची नामक उपनगर हैं। शिवकांची को दक्षिण की काशी कहा जाता है।
शिवकांची में स्थित क्षिति या पृथ्वी लिंग ‘एकाम्रेश्वर क्षितिलिंग’ के नाम से पूजित है। इस शिवलिंग पर जलाभिषेक नहीं होता बल्कि चमेली के तेल से स्नान कराने की परम्परा है। उक्त शिवलिंग, महादेवी भगवती पार्वती द्वारा प्रतिष्ठित स्थावरलिंग है। इस लिंग का दर्शन और पूजन करने से अभिलाषित ऐश्वर्य और विभूति की प्राप्ति होती है। मंदिर अत्यंत सुंदर और विशाल है। काशी (वाराणसी) की तरह ही कांची में मृत्यु होने पर सद्योमुक्ति मानी जाती है। यहां कांची कामकोटि शंकराचार्य मठ स्थापित है। आद्य शंकराचार्य नेकांची की पहाडिय़ों में यही गुहावास किया और सशरीर अन्तध्र्यान हो गये थे। उन्होंने भारत के चारों ओर चार मठों की स्थापना कर अपने चार शिष्यों को उन चार शंकराचार्य मठों में प्रतिष्ठित किया था, परंतु स्वयं यहीं कांची शंकराचार्य मठ में रहे थे।
2. त्रिचनापल्ली तमिलनाडु राज्य के त्रिचनापल्ली यानी वर्तमान त्रिची नगर में जम्बुकेश्वर स्थित है। ‘अप’ लिंग अथवा जल लिंग जो श्रीरंगनाथ से लगभग डेढ़ किमी की दूरी पर है। लिंग की स्थिति एक जलस्रोत पर है, अत: जलहरी के नीचे जल निरंतर ऊपर उठता दिखाई देता है। यहां एक जामुन का वृक्ष है, जिसका बड़ा महात्म्य है। मंदिर बहुत विशाल और स्थापत्य शिल्प की दृष्टि से अति उत्तम है। मंदिर के बाहर पांच परकोटे हैं। तीसरे परकोटे में एक जलाशय है। इस जलाशय में स्नान कर जम्बुकेश्वर ‘अप’ लिंग के दर्शन का विधान है।
3. तिरुवण्णमल्लाइ स्थित अरुणाचंलेश्वर तेजलिंग यानी अग्निलिंग वस्तुत: अरुणाचल पर्वत के आधार पर निर्मित भव्य एवं विशाल मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित है। इस पर्वत को यहां कैलाश माना जाता है, जिसकी परिक्रमा के बाद ही अग्निलिंग का दर्शन करना यथोचित है। मान्यता है कि यहीं पर भगवती पार्वती का शिव से पुनर्मिलन हुआ था।
पार्वती जी शिवाकांची से अरुणाचल तीर्थ पहुंची और कुछ काल यहां तपस्या की, जिससे अग्निशिखा के रूप में एक तेजोलिंग स्वयं प्रकट हुआ, जिससे समस्त संसार में व्याप्त अंधकार का नाश हुआ। मंदिर में सबसे बड़ा उत्सव ‘कीर्तिगाई’ नाम से आयोजित होता है। इस अवसर पर मंदिर के पुजारी एक बहुत बड़े पात्र में बहुत सा कर्पूर जलाते हैं और उसे ऊपर से ढंक देते हैं। यह कर्पूर प्रज्ज्वलित पात्र गर्भगृह से बाहर उस मण्डप मेें लाते हैं जहां भगवान शिव का साकार मानुसी विग्रह रखा रहता है। यहां लाकर पात्र खोल दिया जाता है और कर्पूर ज्वाला प्रकट हो जाती है, इसी समय मंदिर शिखर पर भी बहुत सा कर्पूर और घी का बड़ा मशाल जलाकर ज्वाला प्रकट की जाती है।
शिखर पर ज्वाला निरंतर दो दिन तक प्रज्ज्वलित रहती है। यही प्रज्ज्वलित ज्वाला शिव के तेजोलिंग स्वरूप मानी जाती है। इसी के दर्शन के लिए देश-विदेश से अपार जनसमूह का यहां आगमन होता है। तिरुवण्णमल्लाइ नगर में पैर रखने की जगह ढूंढने पर भी नहीं मिलती। दक्षिण के कैलाश अरुणाचल पर्वत की परिक्रमा करता विशाल जनसमुदाय विशाल मानवनद का स्वरूप ले लेता है।
4. दक्षिण के निवासी जन कालहस्ती को ‘दक्षिण काशी’ कहते हैं। कालहस्ती नगर में स्वर्णमुखी नदी के तट पर कालहस्तीश्वर वायुलिंग विराजमान है। उक्त स्थान ‘तिरुमाला-तिरुपति से कुछ दूर उत्तर में है। मंदिर बहुत ऊंचा, विशाल और सुंदर है। मंदिर के गर्भगृह में भी प्रकाश और वायु का नितांत अभाव है। वायुलिंग के दर्शन दीपज्योति के द्वारा ही हो पाते हैं। माना जाता है कि यहां एक वायु विशेष के झोंके के रूप में भगवान शिव विराजते हैं।
यहां शिवलिंग गोलाई में न होकर चौकोर है और उसके समक्ष कण्णप (कण्णपा) भील की प्रतिमा है, जो परम शिवभक्त था और अपने दोनों नेत्र निकालकर शिवजी को अर्पण कर दिए थे।
अपने बाणों से उसने नेत्रों को निकाला था और उफ भी न की थी। मान्यता है कि इस दक्षिण काशी में गंगा-काशी (वाराणसी) की ही तरह मृत्यु को प्राप्त करने वालों को भगवान शिव कान में तारकमंत्र सुनाकर मुक्त कर देते हैं। यहां सामने की पहाड़ी पर मां भगवती दुर्गा का प्राचीन सुंदर मंदिर है।
5. चिंदम्बरम में आकाशलिंग विराजमान है। चिदम्बरम यानी चिदाकाश। समुद्र तट से कुछ दूर कावेरी नदी के तट पर अत्यंत भव्य और सुंदर मंदिर है। मंदिर में एक के बाद एक चार विशाल परकोटे हैं। प्रमुख द्वार यानी ‘गोपुर’ का शिल्प अद्भुत और विस्मयकारी है। शिवलिंग नामक सुंदर सरोवर और सहस्त्र स्तंभों का मण्डप द्राविड़ स्थापत्य और भास्कर्य शिल्प के उत्कृष्ट शिखर हैं, सहस्त्र मण्डप में मात्र स्तम्भ हैं, ऊपर कोई छत नहीं है।
उत्सव अवसरों पर इन स्तम्भों पर चंदोवा डाल दिया जाता है। गर्भगृह मंदिर की ड्योढ़ी पर पीतल निर्मित विशाल चौखट है, जहां रात्रि में सैकड़ों दीपक प्रज्ज्वलित किए जाते हैं। गर्भगृह के अंदर कोई मूर्ति प्रतिमा (विग्रह) नहीं है, कोई छत नहीं है, मात्र आकाश ही आकाश है। यही महादेव शिव का आकाश लिंग (चिदाकाश) है। एक-दूसरे मंदिर मेंं चिदम्बरेश्वर नटराज की ताण्डव नृत्यकारी मनोरम प्रतिमा प्रतिष्ठित है। मंदिर में सोने से मढ़ा एक विशाल दक्षिणावर्त शंख रखा हुआ है, जो बहुमूल्य है।
स्वामी गोपाल आनंद बाबा-विभूति फीचर्स