भगवान श्रीकृष्ण को ज्यादातर प्रेम के प्रतीक के रूप में पूजा गया जबकि प्रेम के अलावा भी श्रीकृष्ण बहुत विराट हैं पूर्ण पुरुषोत्तम हैं। बेशक प्रेम उनका स्वभाव है इसीलिए उनका प्रेम इतना विशाल इतना अनंत है कि वे सम्पूर्ण कलाओं के स्वामी बन सके और हर कला में पूर्ण। श्रीकृष्ण जितने अच्छे प्रेमी हैं उतने ही अच्छे कूटनीतिज्ञ हैं। जितने अच्छे संगीतकार हैं उतने ही महान योद्धा हैं और जितने समर्पित रसिया हैं उतने ही समर्पित कर्मयोगी लेकिन श्रीकृष्ण के कर्मयोगी स्वरूप की चर्चा कम होती है। ज्यादातर कवि और कथाकार श्रीकृष्ण के प्रेमी रूप को महिमा मंडित करते रहे और उनको रासबिहारी ही बना दिया गया। श्रीकृष्ण से हमें सिर्फ प्रेम नहीं सीखना था बल्कि कर्म सीखना था, निष्काम कर्म सीखना चाहिए था तभी दुनिया से अन्याय और अधर्म समाप्त होता लेकिन हुआ उल्टा जब हम प्रेम करते हैं तो परिणाम की चिंता नहीं करते लेकिन कर्म तभी करते हैं जब उसमेें कोई फायदा हो, हमारे कर्म रिजल्ट ओरिएंटेड हो गए इसीलिए सारा तनाव और फसाद जीवन में आया। कृष्ण के जीवन को देखें तो उन्होंने जो भी किया उससे उन्हें कभी कोई व्यक्तिगत फायदा नहीं हुआ लेकिन फिर भी वे अथक, अनवरत कर्म करते रहे और उनके जीवन में कभी अवसाद और आलस्य भी नहीं रहा चाहे परिणाम विपरीत रहा हो। गीता में वे कहते भी हैं कि ‘मुझे कुछ भी वस्तु प्राप्त करने की जरूरत नहीं है फिर भी मैं कर्म करता हूं, सारी दुनिया में जो कुछ भी होता है वो सब मेरे पास है फिर भी मैं कर्म करता हूं।
श्रीकृष्ण सिर्फ कर्मयोगी नहीं हैं बल्कि निष्काम कर्मयोगी हैं, कर्मो में न उनको आसक्ति है न विरक्ति बल्कि अनासक्ति है यही कारण है कि उनके जीवन में किसी भी तरह का अहंकार नहीं रहा और उन्होंने छोटे बड़े काम में भेद नहीं किया, राजा होने के बाद भी उन्होंने सारथी बनना स्वीकार किया और मान अपमान से परे होकर युद्ध में हथियार न उठाने की प्रतिज्ञा भी तोड़ी यह उनका अर्जुन और भीष्म के प्रति प्रेम भी था। अपने युग के सबसे बड़े योद्धा और परम प्रतापी होने पर भी उन्होंने युद्ध से भागने से भी गुरेज नहीं किया, उनको रणछोड़ कहा गया, लेकिन उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार किया, क्योंकि तब यही उचित था, कालांतर में हमने यह भी देखा कि बहुत सी सेनाएं इसलिए युद्ध हार गईं, क्योंकि उन्होंने वक्त पर पलायन नहीं किया और विपरीत हाल में भी युद्ध में डटे रहे, यह वीर का लक्षण तो है लेकिन कूटनीतिज्ञ का नहीं।
श्री कृष्ण की कूटनीति देखिए कि युद्ध से भागकर भी युद्ध नहीं छोड़ा बल्कि सही समय का इंतजार किया और आखिर में जरासंध को समूल नष्ट किया ही। श्रीकृष्ण का युद्ध छोडऩा न तो किसी तरह का डर है और न पराजय वे जय पराजय से ऊपर उठकर लडऩे वाले योद्धा हैं तभी उन्होंने युद्ध से पलायन करने वाले अर्जुन को रोका और अंत तक युद्ध लडऩे को प्रेरित किया, यह काम कोई रणछोड़ नहीं कर सकता बल्कि एक कुशल राजनीतिज्ञ ही कर सकता है, ऐसा ही विरोधाभासी व्यक्तित्व है कृष्ण का इसीलिए वो पूर्ण है। गीता के अनुसार वे जय भी हैं पराजय भी, सत्य भी हैं और असत्य भी वे पाप भी करते हैं पुण्य भी इसीलिए इनको वरदान भी मिलते हैं और शाप भी, लेकिन फिर भी उनके मन में कोई दुख, ग्लानि, कोई संदेह, कोई अहंकार नहीं सिर्फ अपने प्रत्यक्ष काम के प्रति पूर्ण समर्पित परिणाम की चिंता किए बिना, परिणाम अनुकूल हो या प्रतिकूल दोनों में उतने ही खुश क्योंकि वे निष्काम कर्मयोगी हैं इसीलिए उनके जीवन में अवसाद का स्थान नहीं है। यह निष्काम कर्मयोग ही हमेें सीखना था कृष्ण से लेकिन इसकी चर्चा साहित्य में कम मिलती है और उनके रास की चर्चा ज्यादा मिलती है,यही हाल कथाकारों का है, कथा पंडालों में कृष्ण के विवाह को ज्यादा प्रमुखता दी जाती है। उनके त्याग, संघर्ष की चर्चा नहीं होती यही कारण है कि हम कृष्ण के संघर्ष को लगभग भूल ही चुके हैं, जबकि सृष्टि में अकेले कृष्ण ही हैं जिनका जन्मदिन से ही संघर्ष शुरू हो गया था, वे कभी नाजों में नहीं पले और न ही छप्पन भोग से बड़े हुए बल्कि माखन, मिश्री, मूंगफली और चने खाकर भी राज कुमारों की तरह शान से रहे।
उनका भोग से ज्यादा ध्यान कर्तव्य पर रहा, जनसेवा और जनकल्याण पर रहा। उनके बचपन को छोड़ दें तो उनके पास रास रचाने का उतना वक्त ही नहीं था जितना हमने रास की चर्चाएं की हैं, उनकी व्यस्तता का अंदाज इस बात से लगा लीजिए कि युद्ध से पहले जब वे भीम की पत्नी हिडिंबा से मिलने गए तब उन्होंने व्यस्तता के कारण हिडिंबा के घर भोजन भी नहीं किया था और घटोत्कच को युद्ध की सूचना देकर तुरंत निकल गए, महाभारत की क्षेपक कथाओं में इसका उल्लेख मिलता है। महाभारत के युद्ध को भी सिर्फ कुरुक्षेत्र तक ही सीमित समझा और समझाया गया जबकि युद्ध से पूर्व श्रीकृष्ण ने दिन रात कितनी यात्राएं की इसका जिक्र कथावाचक नहीं करते, जिसे आज की भाषा में फील्डिंग कहा जाता है युद्ध के लिए वो फील्डिंग अकेले कृष्ण ने ही की थी,उनके कहने से ही कई राजा पांडवों के समर्थन में आए थे और युद्ध में भोजन का प्रबंध भी कृष्ण ने ही करवाया था, खाने के लिए उडुपी की ड्यूटी उन्होंने ही लगाई थी और खास बात यह है कि उन्होंने दोनों सेनाओं के भोजन का प्रबंध किया था। युद्ध में सबसे ज्यादा मेहनत, संघर्ष, सक्रियता, प्लानिंग कृष्ण की ही थी लेकिन इसकी चर्चा कम होती है।
कृष्ण कितने महान कर्मयोगी थे कैसे निष्काम कर्मयोगी थे कि खुद सर्व समर्थ होने के बाद भी उन्होंने देश का सम्राट युधिष्ठिर को बनाया और खुद एक छोटे राज्य के राजा बने रहे, क्योंकि उनके जीवन में श्रेय का महत्व नहीं रहा, क्रेडिट लेने में उनकी रुचि नहीं रही सिर्फ कर्म करने में लगे रहे इसीलिए श्रीकृष्ण हर हाल में प्रसन्न रहे और यही प्रेरणा उन्होंने गीता के माध्यम से दुनिया को दी है। बस जरूरत है रास बिहारी के विश्वरूप को समझने की और समझाने की, क्योंकि श्रीकृष्ण पूर्ण ब्रह्म हैं वे सिर्फ राधा रमण या गोपी बल्लभ नहीं हैं, वे तो जगतपति हैं… जय श्री कृष्णा।
(डॉ. मुकेश कबीर-विभूति फीचर्स)