Thursday, December 26, 2024

अपने पूर्वजों को याद कर उन्हें नमन करने का पर्व है श्राद्ध!

प्रतिवर्ष भाद्रपद पूर्णिमा से पितृपक्ष शुरू हो जाता है जो 16 दिनों तक आश्विन अमावस्या तक चलता है। इस साल पितृ पक्ष की शुरुआत 29 सितंबर से हो रही है और श्राद्ध पक्ष का समापन 14 अक्टूबर को होगा।श्राद्ध पक्ष की अवधि में पूर्वजों के निमित्त पिंडदान, तर्पण और श्राद्ध कर्म किए जाते हैं। ऐसा करने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है जिससे पूर्वज प्रसन्न होते हैं। कहा जाता है कि पितरों के प्रसन्न होने से वंशजों का भी कल्याण होता है।जो लोग पूरे श्राद्धपक्ष में अपने पूर्वजों का तर्पण, पिंडदान न कर पाए हो, वह सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितरों के निमित्त श्राद्ध कर सकते हैं। इस दिन बिहार के गयाजी में पिंडदान करने का सबसे ज्यादा महत्व है।

सर्व पिृत अमावस्या को महालया अमावस्या और पितृ विसर्जनी अमावस्या भी कहते हैं।पितृ पक्ष में पूर्वज धरती पर अपने परिवार के बीच आते हैं और उन्हें आशीर्वाद देते हैं,ऐसी धार्मिक मान्यता है। सर्वपितृ अमावस्या पर पितरों को सम्मान पूर्वक श्राद्ध, पिंडदान और पूजा करते हुए विदाई दी जाती है।कहते हैं सर्वपिृत अमावस्या तिथि पर किया गया श्राद्ध, परिवार के सभी पूर्वजों की आत्माओं को प्रसन्न करने के लिये पर्याप्त है।सर्वपितृ अमावस्या पर परिवार के उन मृतक सदस्यों का श्राद्ध किया जाता है जिनकी मृत्यु अमावस्या तिथि, पूर्णिमा तिथि तथा चतुर्दशी तिथि को हुई हो।

अगर किसी कारणवश मृत्यु तिथि पर श्राद्ध करने में सक्षम न हो, तो वो मात्र अमावस्या तिथि पर श्राद्ध कर सकता है।जिन पूर्वजों की पुण्यतिथि ज्ञात नहीं है, उनका श्राद्ध भी अमावस्या तिथि पर किया जा सकता है, इसीलिये अमावस्या श्राद्ध को सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है।

श्राद्ध पक्ष के दिनों में ।।ऊॅं नमो भगवते वासुदेवाय।।मन्त्र का वाचन करना चाहिए। जिस दिन श्राद्ध हो, उस दिन श्राद्ध की शुरूआत और समापन में ।।देवताभ्य: पितृभ्यश्च महायोगिभ्यन एव च। नम: स्वा्हायै स्व धायै नित्ययमेव भवन्युव त।।का वाचन करे।

पितर 2 प्रकार के होते हैं एक दिव्य पितर और दूसरे पूर्वज पितर। दिव्य पितर ब्रह्मा के पुत्र मनु से उत्पन्न हुए ऋषि हैं। पितरों में सबसे प्रमुख अर्यमा हैं जिनके बारे में गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि पितरों में प्रधान अर्यमा वे स्वयं हैं।
दूसरे प्रकार के पितर पूर्वज होते हैं। पितृपक्ष में अपने इन्हीं पितरों को लोग याद करते हैं और इनके नाम से पिंडदान, श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन करवाते हैं।

कठोपनिषद्, गरुड़ पुराण, मार्कण्डेय पुराण के अनुसार पितर अपने परिजनों के पास पितृपक्ष श्राद्ध के समय आते हैं और अन्न जल एवं आदर की अपेक्षा करते हैं। जिन परिवार के लोग पितृ पक्ष के दौरान पितरों के नाम से अन्न जल दान नहीं करते। श्राद्ध कर्म नहीं करते हैं, उनके पितर भूखे-प्यासे धरती से लौट जाते हैं। इससे परिवार के लोगों को पितृ दोष लगता है। इसे पितृ शाप भी कहते हैं। इससे संतान प्राप्ति में बाधा आती है। परिवार में रोग और कष्ट बढ जाता है।

जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले गए हैं चाहे वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, उनकी तृप्ति और उन्नति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध है। माना जाता है कि सावन की पूर्णिमा से ही पितर मृत्यु लोक में आ जाते हैं और नवांकुरित कुशा की नोकों पर विराजमान हो जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितृ पक्ष में हम जो भी पितरों के नाम का निकालते हैं, उसे वे सूक्ष्म रूप में आकर ग्रहण करते हैं। केवल तीन पीढिय़ों का श्राद्ध और पिंड दान करने का ही विधान है।श्राद्ध स्त्री या पुरुष, कोई भी कर सकता है। श्रद्धा से कराया गया भोजन और पवित्रता से जल का तर्पण ही श्राद्ध का आधार है।

श्राद्ध का अनुष्ठान करते समय दिवंगत पूर्वज का नाम और उसके गोत्र का उच्चारण किया जाता है। परिवार का उत्तराधिकारी या ज्येष्ठ पुत्र ही श्राद्ध करता है। जिसके घर में कोई पुरुष न हो, वहां स्त्रियां ही इस परम्परा को निभाती हैं। परिवार का अंतिम पुरुष सदस्य अपना श्राद्ध जीते जी करने के लिए स्वतंत्र माना गया है। संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवन में कर ही लेते हैं।जब महाभारत के युद्ध में कर्ण का निधन हो गया था और उनकी आत्मा स्वर्ग पहुंच गई, तो उन्हें रोजाना भोजन की बजाय खाने के लिए सोना और गहने दिए गए। इस बात से निराश होकर कर्ण की आत्मा ने इंद्र देव से इसका कारण पूछा।

तब इंद्र ने कर्ण को बताया कि आपने अपने पूरे जीवन में सोने के आभूषणों को दूसरों को तो दान किया, लेकिन कभी भी अपने पूर्वजों को दान नहीं दिया। तब कर्ण ने उत्तर दिया कि वह अपने पूर्वजों के बारे में नहीं जानता है और उसे सुनने के बाद, भगवान इंद्र ने उसे 15 दिनों की अवधि के लिए पृथ्वी पर वापस जाने की अनुमति दी ताकि वह अपने पूर्वजों को भोजन दान कर सके। तब से इसी 15 दिन की अवधि को पितृ पक्ष के रूप में जाना जाता है।
-डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट

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