चीन के साथ भारत का वर्ष 2022 में 118.50 अरब डॅालर का आयात हुआ तथा कुल 17.48 अरब डॅालर का निर्यात हुआ था। इस प्रकार कुल व्यापार घाटा 101.02 अरब डॅालर का रहा था। चीन ने 1978 से आर्थिक उदारीकरण प्रारम्भ किया था जबकि भारत ने आर्थिक उदारीकरण 1991 में प्रारम्भ किया था। यह 13 वर्ष की देरी भारत की अर्थव्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हुई है।
कोरोना काल में भारत की अर्थव्यवस्था लगभग दो वर्ष तक ठहरी रही। अर्थव्यवस्था में मांग में बृद्धि वर्ष 2021-22 से ही देखी जा रही है। ऐसी परिस्थिति में चीन से आयात का बढऩा बहुत नकरात्मक भी नहीं है। आयात पहले के मुकाबले बढ़ गया तथा निर्यात में भारी गिरावट आयी। चीन भारत को जानबूझ कर चोट पंहुचाने की कोशिश करता है परन्तु भारत चीन से जानबूझ कर भी व्यापार कम नहीं कर पा रहा है। इस एक पक्षीय व्यापार से चीन को ही लाभ पहुँच रहा है।
भारत आत्मनिर्भरता तथा मेड़ इन इंडिय़ा की अनेक योजनाऐं चला कर घरेलू उत्पादन को बढ़ाने का हर सम्भव प्रयास कर रहा हैं। कई देश कोरोना काल के उपरान्त से ही वैश्विक आपूर्ति के लिए चीन का विकल्प तलाश कर रहे है। भारत के उद्योगपतियों के लिए यह बड़ा अवसर हो सकता है परन्तु भारतीय उद्योगपति भी इसका लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। अत: इस ओर भारत को प्राथमिकता के आधार पर कदम उठाने पड़ेंगे जिससे भारत चीन का विकल्प तलाश कर सके।
पीएचड़ी चैम्बर आफ कामर्स एंड़ इंड़स्ट्रीज की एक रिपोर्ट के अनुसार यदि नीतिगत मोर्चे पर संभल कर कदम बढ़ाये जायें तो चीन से 40 प्रतिशत तक आयात कम किया जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार रसायन, आटोमोबाइल कंपोनेंट, कास्मेटिक और चमड़ा क्षेत्र में आयात पर निर्भरता कम करना काफी हद तक संभव है। 36 ऐसे सब-सेक्टर्स है जिनमें आसानी से आयात कम किया जा सकता है।
पीएलआई योजना के अंतर्गत कार्य कर रहे सेक्टर्स पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। दूसरे चरण में वे उद्योग शामिल किये जायें जो श्रम केन्द्रित हों जैसे कपड़ा, लोहा एवम् इस्पात, फिलामेंट, लाइटिंग और फर्नीचर इत्यादि। भारत और चीन दोनों का 18वीं सदी तक आधे वैश्विक व्यापार पर नियंत्रण था। वैश्विक व्यापार में दोनों देशों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान था। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ती के बाद और चीन में साम्यवाद पनपने के बाद धीरे धीरे दोनों देशों के वैश्विक व्यापार में अंतर बढऩे लगा था। भारत ने सेवा क्षेत्र तथा चीन ने मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में स्थान बनाने की कोशिश की जिसमें दोनों देशों को संतुलन की आवश्यकता महसूस हो रही है।
चीन व भारत का गत पांच सौ साल का व्यापारिक इतिहास
16वीं सदी में वैश्विक आय में भारतीय अर्थव्यवस्था की हिस्सेदारी 24.5 प्रतिशत थी तथा विश्व में भारत चीन के बाद दूसरा स्थान रखता था। भारतीय उत्पादों को अरब के व्यापारी लाल सागर के रास्ते यूरोप में भारत का माल बेचते थे। चीन का यूरोप के साथ सीधा समुन्द्री व्यापार पुर्तगालियों के साथ प्रारम्भ हुआ। इसके बाद में अन्य यूरोप के देश शामिल हो गये थे जबकि भारत व चीन के बीच जमीन के रास्ते व्यापार होता था। भारत में 17वीं सदी में मुगलों की वार्षिक आय 17.5 करोड़ पौंड़ थी।
भारत से निर्यात अधिक होता था। खंभात में प्रतिवर्ष लगभग तीन हजार समुन्द्री जहाज व्यापार के लिए आते थे। चीन का वैश्विक व्यापार के एक चौथाई भाग पर कब्जा था। 1680 में समुन्द्री व्यापार पर चीन के द्वारा छूट दी गई तो इसमें बहुत विकास हुआ। 18वीं सदी में मुग़लों का अवसान शुरु हो गया था तथा वैश्विक आय में भारत का 24.4 प्रतिशत हिस्सा था। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने विश्व में भारत के व्यापारिक संबंधों को नष्ट भ्रष्ट कर दिया था। चीन की भी 1760 में वैश्विक कारोबार में हिस्सेदारी घटने लगी। चीन ने विदेशी व्यापारियों पर सख्त नियम कानून लागू कर दिये थे। 1776 में आजादी की लड़ाई के बाद अमेरिकियों ने चीन से व्यापार प्रारम्भ कर दिया था।
19वीं सदी में वैश्विक आय में भारत की हिस्सेदारी गिर कर 16 प्रतिशत रह गई। ईस्ट इंडिय़ा कम्पनी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को अपने चंगुल में ले लिया था। कम्पनी चीन के साथ अफीम का व्यापार बढ़ा रही थी। 1870 तक वैश्विक आय में भारत की हिससेदारी मात्र 12.2 प्रतिशत रह गई। चीन में क्विंग शासक हो गये जिन्होंने सभी बंदरगाह व्यापारियों कि लिए बंद कर दिये। भारत के साथ अफीम के व्यापार पर भी प्रतिबंध लागू कर दिया।
इसके लिए ब्रिटेन व चीन के बीच लड़ाई भी हुई । बाद में चीन ने अफीम के व्यापार के लिए ब्रिटेन को छूट दे दी और अपने अति विकसित क्षेत्रों को पश्चिमी व्यापारियों के लिए खोल दिया जिससे 1843 के बाद आठ वर्षेां में ही चाय का निर्यात पांच गुना बढ़ गया। 20वीं सदी में 1913 में भारत की वैश्विक बाजार में मात्र 7.6 प्रतिशत हिस्सेदारी रह गई। 1952 में यह 3.8 प्रतिशत रह गई। 1991 में उदारीकरण से उद्योगों में कुछ सुधार हुआ।
अब पुन: भारत की हिस्सेदारी सात प्रतिशत से ऊपर पंहुच गई है। चीन ने 20वीं सदी में अपने वैश्विक हिस्सेदारी को बढ़ाने के उपाय किये है। साम्यवादी कठोर शासन व्यवस्था में चीन अपनी मैन्यूफैक्चरिंग के दम पर विश्व का कारखाना बन गया। चीन ने 1980 में शेनझेन में पहला स्पेशल इकोनामिक जोन स्थापित किया। 1986 में चीन की ओपेन ड़ोरपालिसी से विदेशी निवेश में बढ़ोत्तरी हुई। चीन की वैश्विक बाजार में हिस्सेदारी 18 प्रतिशत से अधिक हो गई है।
चीन के साथ गत पांच सौ से अधिक वर्षों से भारत के व्यापारिक संबंध रहे है। वर्तमान में चीन के साथ बढ़ते व्यापार घाटे को नीतियों के स्तर पर विफल नहीं कहा जा सकता है। अभी सबसे बड़ी समस्या कच्चे माल की है। फार्मा सेक्टर बहुत हद तक अपने कच्चे माल के लिए चीन पर निर्भर है। यह निर्भरता बहुत कम की जानी चाहिए। चीन से सीमा पर खतरा बना रहता है तो ऐसी स्थिति में व्यापारिक मोर्चे पर चीन पर निर्भरता बहुत कम की जानी चाहिए। परन्तु भारत का यह दुर्भाग्य है कि चीन के साथ सीमा पर तनाव के बाद भी भारत अभी अपनी औद्योगिक निर्भरता कम करने में बहुत सफल नहीं हो पाया है। चीन से भारत में आयात निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है।
भारत के उद्यमियों को चीन पर निर्भरता कम करने के लिए गम्भीर प्रयास करने होंगे। उद्यमियों के द्वारा किये गये प्रयासों से विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों में विकास हुआ भी हैं. कई उत्पादों में चीन पर भारत की निर्भरता कम भी हुई है। भारत में उद्योग भी स्थापित हो रहे है और उत्पादन भी बढ़ रहा है। भारत सरकार भी चीन पर निर्भरता कम करने के लिए प्राथमिकता के साथ काम कर रही है। देश लगातार डि़जिटल अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने की ओर कदम बढ़ा रहा है।
ऐसी स्थिति में फोन से संबंधित उपकरणों, कम्प्यूटर हार्डवेयर, इलैक्ट्रानिक उपकरणों का आयात बढ़ा है। यह आयात एक प्रकार से डि़जिटल अर्थव्यवस्था की आधारशिला कहा जा सकता है। इसी तरह अन्य उद्योगों में भी आयातित कच्चा माल, कल पुजऱ्े आदि भारतीय उद्योगों को आधार देने में अपनी भूमिका निभा रहे है। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था में भी सुधार हो रहा है और भारत में वस्तुओं की मांग बढ़ती जा रही है।
चीन के उत्पाद सस्ते होते है जिससे भारत में आयात बढ़ जाता है। चीन के उत्पाद सस्ते इसलिए है कि वह विश्व व्यापार संगठन के नियमों का पालन नहीं करता है। सब्सिड़ी के माध्यम से वह निर्यात होने वाले उत्पादों की कीमत बहुत कम रखता है जिससे भारत तथा अन्य देश चीन से आयात पर एंटी ड़ंपिंग शुल्क लगाते है। चीन को विश्व व्यापार संगठन के नियमों को मानते हुए उत्पादन करना चाहिए। भारतीयों को चाहिए कि वे अधिक से अघिक मात्रा में मात्र स्वदेशी वस्तुओं को ही खरीदें। चीन से होने वाले आयात को भारतीयों की एकजुटता ही कम कर सकती है व भारतीयों को नई तकनीक का विकास करना ही होगा। चीन से बढ़ता आयात अब सबके लिए गम्भीर चिन्ता की बात है।
-ड़ा सूर्य प्रकाश अग्रवाल