जिस घर में बालक-बालिकाएं सुशील हों, पत्नी मधुर भाषिणी हो, द्रव्य इतना हो कि सामान्य रूप से परिवार का निर्वाह होता रहे। पुरूष अपनी पत्नी को ही स्त्री दृष्टि से देखता हो, समझता हो।
दूसरी स्त्रियों को बहन-बेटी एवं माता की दृष्टि से देखता हो, जो अपने समान अवस्था की हो उसको बहन की दृष्टि से देखे, जो अधिक अवस्था की हो उसे माता की दृष्टि से और जो आयु में छोटी हो, उन्हें बेटी की दृष्टि से देखें।
जिस घर में यदि सेवक हो तो वह आज्ञाकारी हो, निष्ठावान हो, परिजन परस्पर प्रेम भाव से रहते हों, प्रतिदिन अतिथि सत्कार किया जाता हो। जिस घर में उस घर की बेटी तथा उसके पति को लक्ष्मी तथा विष्णु के समकक्ष सत्कार प्राप्त होता हो, धार्मिक आयोजन होते रहते हों।
जिस घर में सात्विक आहार किया जाता हो, दान-यज्ञ को सात्विक और अनिवार्य कत्र्तव्य माना जाता हो वही गृहस्थ श्रम धन्य है, वही श्रेष्ठ है, वही प्रशंसनीय है और वही गृहस्थाश्रम मुक्ति का साधन है। ऐसे सद्गृहस्थ को ही स्वर्ग की संज्ञा से विभुषित किया जाता है।