Sunday, May 19, 2024

5 अक्टूबर को विश्व शिक्षक दिवस: विकास के लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं शिक्षक

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इस संसार का दर्शन कराने वाले माता- पिता का स्थान जीवन में कभी कोई नहीं ले सकता। माता- पिता ही प्रथम गुरू होते हैं, जो हमें इस जीवन संघर्ष में उतरने की शिक्षा देते हैं।उनका यह ऋण हम किसी भी रूप में कभी भी उतार नहीं सकते, लेकिन यह सत्य है कि समाज में रहने के योग्य हमें शिक्षक ही बनाते हैं।
समाज में जीवन जीने का वास्तविक तरीका आचार्य, शिक्षक ही सिखाते हैं। इसीलिए शिक्षक समाज के शिल्पकार कहे गए हैं, वे न सिफऱ् विद्यार्थी को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं, बल्कि उसके सफल जीवन की नींव भी अपनी हाथों से रखते हैं।शिशु अपने पर्यावरण में, अपने आस- पास जो कुछ होता देखता है, वह उसी रूप में ढल जाता है, और उसकी मानसिकता भी कुछ वैसी ही बन जाती है।
सफल जीवन के लिए गुरु के द्वारा प्रदान की जाने वाली शिक्षा बहुत उपयोगी है। शिक्षक ही वह धुरी होता है, जो विद्यार्थी को सही-गलत व अच्छे-बुरे की पहचान करवाते हुए बच्चों की अंतर्निहित शक्तियों को विकसित करने की पृष्ठभूमि तैयार करता है। वह प्रेरणा की फुहारों से बालक रूपी मन को सींचकर उनकी नींव को मजबूत करता है तथा उसके सर्वांगीण विकास के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। पुस्तकीय ज्ञान के साथ नैतिक मूल्यों व संस्कार रूपी शिक्षा के माध्यम से एक गुरु ही शिष्य में अच्छे चरित्र का निर्माण करता है।
भारतीय संस्कृति में ज्ञान को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। मनुष्य के द्वारा धर्म के मूल्यों की स्थापना करने के लिए ज्ञान अत्यावश्यकहै। ज्ञान को साधारण मनुष्यों को समझाना अथवा धर्म और अधर्म के बीच में भेद बताने का कार्य आचार्य अर्थात शिक्षक का होता है, जिसे गुरु भी कहा जाता है। भारतीय ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है किवास्तव में सभी गुरुओं को आचार्य अर्थात शिक्षक की संज्ञा से संज्ञायित किया जा सकता है, लेकिन सभी शिक्षकों को गुरु की संज्ञा नहीं दी जा सकती।
इसलिए अंग्रेजी भाषा के टीचर को शिक्षक अथवा अध्यापक की संज्ञा दी जाती है, न कि गुरु की। गुरु संस्कृत भाषा का शब्द हैं जो हिन्दी, अंग्रेजी अथवा विश्व की किसी भी अन्य भाषा में गुरु ही कहा जाएगा। वैदिक मतानुसार मनुष्य का सबसे बड़ा गुरु व मित्र ईश्वर होता है, परंतु सत्य ज्ञान देने वाले गुरु को भी ईश्वर तुल्य माना गया है।भारतीय परंपरा में सत्यासत्य का ज्ञान देने वाले शिक्षक को उसके गुणों के आधार पर पांच भागों में विभाजित किया गया है- अध्यापक, उपाध्याय, आचार्य, पंडित व गुरु।
विद्यार्थियों को प्रारम्भिक ज्ञान उपलब्ध करवाने वाले शिक्षक को अध्यापक कहते हैं। विद्यार्थी में सीखने की इच्छा को जागृत करने वाला एक अध्यापक ही होता है। शिष्य के गुरुकुल में प्रवेश करने पर सबसे पहले उसका परिचय अध्यापक से ही होता है। अध्यापक उसके मन के अंदर ज्ञान का प्रवाह करता है। अर्थात किसी विषय के बारे में शुरूआती ज्ञान देने वाले को ही अध्यापक की संज्ञा दी गयी है।अध्यापक के बिना एक सुशिक्षित समाज की परिकल्पना नहीं की जा सकती है, क्योंकि एक अध्यापक ही विद्यार्थी के लिए आगे के मार्ग को प्रशस्त करता है जो उसकी आगे सीखने की क्षमता को विकसित करने में सहायक है।
उपाध्याय का पद अध्यापक से ऊपर होता था, जो विद्यार्थी को किसी विषय वस्तु में जानकारी उपलब्ध करवाने के साथ-साथ उसके बारे में ज्ञान भी देतेथे। एक अध्यापक अपने शिष्य के कौन, कब, कहां जैसे प्रश्नों के उत्तर देते हैं, जबकि उपाध्याय उस शिष्य के कैसे और क्यों जैसे प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम होते हैं।आचार्य का स्थान उपाध्याय से ऊपर था, जिन्हें वेदों व शास्त्रों का ज्ञान भी होता था। वेदों और शास्त्रों में जीवन की संपूर्ण व्याख्या, ग्रहों व ब्रह्मांड का विस्तृत अध्ययन, भौतिकी, रसायन, चिकित्सा व गणित के सूत्र, शरीर की आंतरिक सरंचना, बीमारियाँ व औषधियां, खगोल विज्ञान इत्यादि सभी की विस्तृत जानकारी दी गयी हैं।
इनके सामने आज का विज्ञान तुच्छ मात्रा हैं।सभी वेदों और शास्त्रों का संपूर्ण अध्ययन करने वाले, और सभी विषयों के बारे में जानकारी रखने वाले लेकिन किसी एक विशेष विषय में निपुणता प्राप्त करने वाले आचार्य होते हैं। गुरुकुल में विद्यार्थियों को शिक्षक के रूप में आचार्य तक की उपाधि वाले शिक्षक तक से ही ज्ञान अर्जित करने का अवसर प्राप्त होता था।गुरुकुल में आचार्य का कार्य विद्यार्थी को ज्ञान देने के साथ-साथ उनमे कौशलता का विकास करना होता था। वे उसे नैतिक मूल्यों, नियमों व सिद्धांतों का ज्ञान देते थे।
आचार्य विद्यार्थी में ज्ञान को अपने जीवन में कैसे उपयोग में लाया जाये, इसके बारे में बताते थे।पंडित का स्थान आचार्य से ऊपर होता था। आचार्य को वेदों-उपनिषदों में से किसी एक विषय के बारे में निपुणता प्राप्त होती थी जबकि पंडितों को सभी विषयों में निपुणता प्राप्त थी। जिसे वेदों और उपनिषदों का संपूर्ण गूढ़ प्राप्त हो और जिसनें उसमे दक्षता सिद्ध कर दी हो, उसे ही पंडित की उपाधि दी जाती थी।वे किसी भी विषय के बारे में उसका गहराई से विश्लेषण करके अपने विद्यार्थियों को सिखा सकते थे, नयी चीज़ों की खोज कर सकते थे, सूत्र बदल सकते थे या उन्हें नया रूप दे सकते थे इत्यादि। किंतु इनके गुणों को देखते हुए इन्हें गुरुकुल से बाहर आम प्रजा के मार्गदर्शन के लिए उपलब्ध करवाया गया।
इनका मुख्य कार्य सामाजिक व धार्मिक अनुष्ठान करवाना, आम प्रजा को उचित मार्ग दिखाना व यज्ञ करवाना होता था। किसी भी धार्मिक व शुभ कार्यक्रम में पंडित को बुलाना अनिवार्य होता था व बिना उनके वह कार्य पूर्ण नहीं माना जाता था। वर्तमान में भी सभी धार्मिक कार्यक्रमों में पंडित की उपस्थिति अनिवार्य माना जाता है।पंडित को गुरुकुल से बाहर जाकर शिक्षक की भूमिका इसलिए दी गयी क्योंकि एक मनुष्य ब्रह्मचर्य आश्रम तक ही गुरुकुल में रहता हैं।
गुरुकुल में प्राप्त की गयी शिक्षा से बाद में वह भ्रमित हो सकता हैं, उसको मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ सकती है। इसीलिए पंडितों को गुरुकुल से बाहर समाज का मार्गदर्शन करने का उत्तरदायित्व दिया गया था। सीके ऊपर गुरु होता था। गुरु दो शब्दों के मेल से बना है। गु का अर्थ अंधकार व रु का अर्थ प्रकाश से है। अर्थात अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला। यहाँ अंधकार का अर्थ अज्ञानता से है, और  प्रकाश का अर्थ ज्ञान से है। गुरुकुल में केवल एक गुरु होता था, जो वहां का प्रधान होता था। गुरु का शिक्षकों में सर्वोत्तम स्थान था। इतना ही नही गुरु को ईश्वर से भी बड़ी उपाधि दी गयी है।
भारत में प्राचीन काल से ही गुरु व आचार्य परंपरा चली आ रही है। गुरुओं की महिमा का बखान पौराणिक ग्रंथों में भी किया गया है।कई ऋषि-मुनियों ने अपने गुरुओं से तपस्या की शिक्षा को पाकर जीवन को सार्थक बनाया। एकलव्य ने द्रोणाचार्य को अपना मानस गुरु मानकर उनकी प्रतिमा को अपने सक्षम रख धनुर्विद्या सीखी। माता-पिता के नाम के कुल की व्यवस्था तो सम्पूर्ण विश्व के मातृ अथवा पितृ सत्तात्मक समाजों में चलती है, परन्तु गुरुकुल का विधान भारतीय संस्कृति की अनूठी विशेषता है।
इसमें शिक्षा प्राप्ति के उपरांत शिष्य गुरु गोत्र अथवा गुरुकुल के नाम से जाने जाते थे। यही कारण है कि भारत में गुरु व आचार्य के प्रति  आदर, सम्मान तथा धन्यवाद ज्ञापन की प्राचीन व समृद्ध परंपरा रही है। प्राचीन काल से ही भारत में आचार्यों को आचार्य देवो भव: कहकर देव समान पूजा जाता रहा है।मान्यता है कि सिर्फ धन देकर ही शिक्षा प्राप्त नहीं किया जा सकता, बल्कि अपने गुरु के प्रति आदर, सम्मान और विश्वास, ज्ञानार्जन में सहायक होते हैं।भारतीय परंपरा में ज्ञान, बुद्धि, विद्या देने वाले गुरुओं को आषाढ़ पूर्णिमा के दिन सम्मानित, पूजित किए जाने की वृहत परिपाटी रही है।
वर्तमान में गुरु, शिक्षक, आचार्य, अध्यापक, टीचर आदि संज्ञाओं से ज्ञान देने वाले, सीखलाने वाले व्यक्तियों को संज्ञायित किए जाते हैं। इन शिक्षकों को मान-सम्मान प्रदान करने के उद्देश्य से विभाजित भारत में शिक्षक दिवस 5 सितम्बर को भारत के द्वितीय राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस और उनकी स्मृति के उपलक्ष्य में मनाया जाने लगा है। शिक्षक समुदाय के मान-सम्मान को बढ़ावा देने के लिए शिक्षक दिवस संसार के अनेक देशों में अलग- अलग दिन विभिन्न तरीके से मनाया जाता है।
वैश्विक स्तर पर समन्वय स्थापित करते हुए संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व शिक्षक दिवस का आयोजन 5 अक्टूबर को मनाया जाता है। इसे 5 अक्टूबर1966 ईस्वी में संयुक्त राष्ट्र की पहल पर यूनेस्को और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के तत्वावधान में सम्पन्न संयुक्त बैठक में अध्यापकों की स्थिति के संबंध में हुई प्रथम चर्चा और प्रस्तुत किए गए सुझाओं को स्मरण करने के दिवस के रूप में मनाया जाता है।
शिक्षकों के प्रति सहयोग को बढ़ावा देने और भविष्य की पीढिय़ों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए शिक्षकों के महत्व के प्रति जागरूकता लाने के उद्देश्य से इसकी शुरुआत की गई थी।इस दिन सामान्य रूप से कार्यरत अध्यापकों एवं सेवानिवृत्त शिक्षकों को उनके विशेष योगदान के लिए सम्मानित किया जाता है।1994 के बाद से प्रतिवर्ष लगभग 100 से अधिक देशों में मनाया जा रहा है।
-अशोक ‘प्रवृद्ध’

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