जिन्हें हम देवताओं के रूप में मानते हैं, उनकी हम स्तुति करे न करें, उनका कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। जो निंदा स्तुति से ऊपर है वही देवता है। फूल जैसा जीवन खिले, देवता के चरणों में समर्पित हो, चंदन की भांति हम अपने निकट में उगे हुए झाड़ झखांड़ों को भी सुगन्धित बनाये।
दीपक की भांति स्वयं जलकर प्रकाश दे। यह शिक्षण-उपचार माध्यमों से स्वयं को ही देना होता है अर्थात स्वयं को शिक्षित करना होता है।
जरा से अक्षत से गणेश जी के चूहे का पेट नहीं भर सकता फिर देवता पर अक्षत चढ़ाने का क्या औचित्य है। इसका उद्देश्य मात्र इतना है कि हम अपनी श्रेष्ठ कमाई का समय श्रम का एक अंश नियमित रूप से परमार्थ के लिए भी लगाते रहे।
यदि मात्र पूजा-प्रार्थना की जाये और आत्म शिक्षण अर्थात स्वयं को शिक्षित करने की बात भुला दी जाये, फल-पुष्प चढ़ाकर देवता को फुसलाने का प्रयास तो कर लिया जाये और स्वयं के आचरण को सुधारा न जाये तो यह विडम्बना ही होगी।
हमें पूजा का मर्म समझना चाहिए। भ्रमजाल में भटकने की अपेक्षा यही ठीक है कि हम जो भी कर्म करें, सोच-समझकर उसके मर्म को समझते हुए उसे आत्मसात करें।