Monday, February 24, 2025

हिंदी दुनिया की भाषा, इसमें प्रवासी साहित्यकारों की भूमिका महत्वपूर्ण

मेरठ। आज हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ में एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी ‘हिंदी का प्रवासी साहित्य’ का आयोजन किया गया। संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में कार्यक्रम अध्यक्ष प्रोफेसर मृदुल कुमार गुप्ता, प्रतिकुलपति, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ, मुख्य अतिथि संकायाध्यक्ष कला, प्रोफेसर संजीव कुमार शर्मा, विशिष्ट अतिथि प्रोफेसर परिन सोमानी, सीईओ एवं निदेशक एल ओ एस डी लंदन यूके रही, बीज वक्ता, डॉ राकेश बी दुबे, वरिष्ठ सलाहकार, हिंदी क्यूसीआई भारत सरकार नई दिल्ली रहे। विशिष्ट अतिथि प्रोफेसर सत्यकेतु संकृत, अध्यक्ष डॉ बी आर अंबेडकर विश्वविद्यालय नई दिल्ली रहे। आयोजन के संयोजक प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी, अध्यक्ष हिंदी में आधुनिक भारतीय भाषा विभाग एवं संचालन डॉ अंजू सहायक आचार्य, हिंदी में आधुनिक भारतीय भाषा विभाग ने किया।
कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रोफेसर मृदुल कुमार गुप्ता ने कहा कि प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी ने हिंदी को आगे ले जाने में महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं। विदेशी विश्वविद्यालय से एमओयू किए जाने चाहिए। जिससे छात्र-छात्राओं को आपसी मेल मिलाप का लाभ मिलेगा। विश्वविद्यालय 10 विद्यार्थियों को विदेश में शिक्षा प्राप्ति के लिए छात्रवृत्ति प्रदान कर रहा है। हमें इसका लाभ लेना चाहिए। प्रोफेसर संजीव कुमार शर्मा ने कहा कि विश्वविद्यालय में ऐसे पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं जिनसे प्रवासी साहित्य का अध्ययन हो रहा है। प्रवासी साहित्य पर दो राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्रदान किए जाते हैं। संगोष्ठियां विद्यार्थियों, शोधार्थियों, शिक्षकों के आपसी मेल मिलाप को मंच प्रदान करती है और अध्ययन अध्यापन को उच्च आयाम प्रदान करती है।

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प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी ने कहा कि प्रवासी साहित्य को चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय ने पहली बार पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया और विभाग ने प्रवासी साहित्य के पाठ्यक्रम की नींव रखी। हिंदी अब दुनिया की भाषा है। इसमें प्रवासी साहित्यकारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। भारत की विश्व स्तर पर भागीदारी भले चाहे वह सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक किसी भी स्तर पर हो इससे भारत की और हिंदी की वैश्विक स्थिति सुनिश्चित होती है।
डॉक्टर राकेश दुबे ने कहा कि जो हमारे बीच से प्रवास में गए हैं, वह प्रवासी है प्रवासी कोई नया शब्द नहीं है। प्रवासी केवल अंतर्देशीय नहीं होता अतः देशीय भी होता है। अतः देशीय प्रवास में घर रह गई महिलाओं के लोकगीत मानव हृदय को झकझोर देते हैं। प्रवास किसी भी रूप में हो अपने क्षेत्र अपने देश सभी की स्मृति में रहता है और प्रवास का दर्द भी रहता है। साहित्य लोक अनुभूति पर भी आधारित रहता है। प्रवास में पली बड़ी पीढ़ी के अनुभव ज्यादा प्रामाणिक और यथार्थ हैं। शोध के लिए पत्रिकाएं ज्यादा महत्वपूर्ण है।

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प्रोफेसर परीन सोमानी ने कहा कि ब्रिटिश काल में बिहार और उत्तर प्रदेश से बहुत से गिरमिटिया मजदूरों को ले जाया गया। हमारा प्राचीन साहित्य हमारी भाषा को दिशा देता है और सांस्कृतिक जमीन तैयार करता है। हमारी पूरी दुनिया एक हो रही है। आज के समय में कौशल विकास का समय है। सभी जगह स्किल्ड लोगों की जरूरत है। प्रवासी साहित्य में प्रवास का दर्द, प्रवास की हृदयगत भावनाएं अभिव्यक्त होती है। हर कोई शाहरुख और कैटरीना बन सकता है, हमें अपनी काबिलियत के अनुसार कार्य करने की जरूरत है। हिंदी बहुत सुंदर और मीठी भाषा है। साहित्य क्षेत्रीय सीमाओं को तोड़ देता है।
प्रोफेसर सत्यकेतु ने कहा कि जब प्रवासी साहित्य को अकादमी में जोड़ा गया है तो उससे प्रवासी साहित्य में जो भी भ्रम उत्पन्न हुआ है हमारा दायित्व है कि हम प्रवासी साहित्य के क्षेत्र को खोले और भ्रम की स्थिति से विद्यार्थियों को बाहर निकाले। प्रवासी साहित्य को विमर्श से जोड़ने की जरूरत नहीं है। प्रवासी साहित्य में जन्मना नहीं होना चाहिए इसलिए प्रवासी साहित्य के लिए आवश्यक नहीं है कि उसके लिए उसे प्रवासी होना जरूरी है। विदेशियों में प्रवासीपर नहीं है। प्रवासन में विस्थापन होना जरूरी है। प्रवासी साहित्य में सबसे भयानक चीज़ यह हुई है कि रचनाकार और आलोचक एक हो गए। साहित्य के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण चीज प्रवृत्ति होती है। प्रवासी साहित्य पर बात करनी है तो उसे विकास करना चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टि का अर्थ होता है की चीजों को खाके के रूप में तैयार करना ताकि चीजों को स्पष्ट रूप से समझ सके। जितना भी गिरमिटिया साहित्य है उनमें प्रवासी साहित्य का हृदय ही विदेश में बसता है। विदेश की विसंगतियां, भाव, संस्कृति तथा दर्द है। भोगा हुआ यथार्थ प्रवासी साहित्य की विशेषता है। आर्थिक संपन्न होने के बावजूद स्त्री कहीं की भी हो उसके आंसू एक ही है। हिंदी का साहित्य चाहे जहां भी रचा हो चाहे किसी ने लिखा हो चाहे जंगल में लिखा हो उसकी अपनी अनुभूतियों जो हिंदी भाषा में कलात्मक रूप देता है।

 

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संगोष्ठी के प्रथम सत्र, प्रवास में हिंदी शिक्षण एवं शोध की संभावनाएं में अध्यक्ष प्रोफेसर वेद प्रकाश बटुक, वरिष्ठ साहित्यकार एवं पूर्व निदेशक फोकलर, अमेरिका, विशिष्ट अतिथि रामतक्षक प्रवासी साहित्यकार, नीदरलैंड और डॉ वेद प्रकाश सिंह, ओसाका विश्वविद्यालय, जापान रहे। सत्र का संचालन अंकित तिवारी, सहायक आचार्य, बी डी जैन गर्ल्स कॉलेज, आगरा रही।
कार्यक्रम अध्यक्ष, प्रोफेसर वेद प्रकाश बटुक ने कहा कि मैं अमेरिका में 25 सालों तक हिंदी का अध्यापन किया। जहां 20000 से ज्यादा विद्यार्थियों ने अमेरिका में हिंदी पढ़ी आज अमेरिका में 50 लाख भारतीय बसते हैं हिंदी के सबसे बड़े दुश्मन ही हिंदी के सबसे बड़े लीडर हैं। हिंदी में सबसे बड़े पूजक महात्मा गांधी जी हैं। मैं ना ही अमेरिका का नागरिक बना न ही ब्रिटिश नागरिक बना हूं। सिवाय तिरंगे के मैं किसी को सलाम नहीं किया। सन 2000 से पहले किसी ने प्रवासी साहित्य नहीं कहा। लेखक प्रवासी हो सकता है लेकिन साहित्य प्रवासी नहीं हो सकता। हिंदी के जो विद्यार्थी हैं भारतीय मूल के होकर भी हिंदी को विदेश में विदेशी भाषा के रूप में पढ़ते हैं।
डॉ रामातक्षक ने कहा गणतंत्र दिवस या स्वतंत्रता दिवस पर नीदरलैंड में सबसे ज्यादा संख्या भारतीय दूतों की होती है। नागरी लिपि की जो ध्वनियां है, वह प्रवीण है। कोविड में हर महीने ऑनलाइन कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे। तथा 600 से अधिक रचनाकारों को जोड़ा गया। टेक्नोलॉजी ने बहुत कुछ संभावनाएं बना दी हैं इसलिए छात्राओं को अपने विषय का चयन करने में बहुत आसानी होगी।
डॉक्टर वेद प्रकाश ने कहा फ्रांस में हिंदी साहित्य का पहला इतिहास मिला। जर्मनी में हिंदी और गुजराती का पहला शिक्षण प्राप्त हुआ। जापान में हिंदी शिक्षण की जो रुचि दिखाई वह भारत के प्रति भी थी। पूरी दुनिया में ज्ञान की जो किताबें लिखी गई वह जापानी में अनुवाद करना चाहते थे। 1908 में टोक्यो में हिंदी और तमिल का विज्ञापन हुआ। शोध की संभावनाएं ज्ञान से बनती है। जापान और हिंदी का जो पुल है उसे अच्छे से विकसित करने की आवश्यकता है। गांधी जी ने जापान पर लिखा है। ओसाका में कम से कम 100 विद्यार्थी हिंदी में पढ़ रहे हैं। लक्ष्मीधर मालवे ने काफी लंबे समय तक हिंदी का अध्यापन किया और इसमें आगे काम करने की जरूरत है।
कार्यक्रम के तृतीय सत्र में पुस्तक परिचर्चा सुधा ओम ढींगरा का साहित्य: महत्व मूल्यांकन, प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी एवं डॉक्टर योगेंद्र सिंह तथा प्रवासी मन तरुण कुमार जी की पुस्तकों पर परिचर्चा एवं शोध पत्र प्रस्तुत किए गए। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ राकेश पांडे, संपादक, प्रवासी संसार, दिल्ली, मुख्य अतिथि तरुण कुमार, लेखक एवं पूर्व अताशे हिंदी एवं संस्कृति लंदन, भारतीय उच्चायोग, वक्ता डॉक्टर विद्यासागर सिंह, सहायक आचार्य, डॉ योगेंद्र सिंह, पूर्व शोधार्थी, पूजा यादव शोधार्थी हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग रहे। कार्यक्रम का संचालन कुमारी रेखा सोम, शोधार्थी हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग ने किया।
डॉ योगेंद्र सिंह ने कहा की सुधा ओम ढींगरा का रचना संसार मानव संवेदनाओं के विभिन्न पड़ाव हैं। साहित्य का अंत: लोक और उनकी रचना दृष्टि महत्वपूर्ण है। प्रवासी साहित्यकारों पर शोध अपने आप में विशिष्ट कार्य है क्योंकि इनमें प्रवासन का जो दर्द और पीड़ा है वह मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने वाला होता है। प्रवासी हमारी ही मिट्टी से जन्मे हैं, हमारी ही मिट्टी के भाग है, हमारी ही संस्कृति को साझा करते हैं इसलिए उनके अनुभव भी हमारे अनुभवों से जुड़े हुए हैं। इसलिए यह पुस्तक विद्वान जनों के लिए और हिंदी के विद्यार्थियों के लिए महत्वपूर्ण है। डॉ विद्यासागर सिंह ने पुस्तक समीक्षा में कहा कि यह पुस्तक प्रवासी साहित्य को समझने और उसकी संवेदनाओं से जुड़ने का बड़ा माध्यम है। यह पुस्तक शोधार्थी और विद्यार्थियों के लिए महत्वपूर्ण है। प्रवासी साहित्य की दर्द पीड़ा और वर्तमान संस्कृति को समझने में यह पुस्तक लाभदायक है।

 

 

 

 

तरुण कुमार ने कहा कि प्रवासी अपने परिवेश को नहीं समझ पाए। प्रवासी साहित्य की आलोचना पर पुरानेपन की छाप है प्रवासी मन पुस्तक में ब्रिटेन के जीवन को दर्शाया गया है।
पूजा यादव ने पुस्तक की समीक्षा करते हुए कहा की यह पुस्तक प्रवासी मन की गहराइयों, अनुभूतियों और संवेदनाओं को समझने का माध्यम है। संबंधों का ढांचा और सांस्कृतिक उठा पठक जो इस समय प्रवासी के मन में है वह इस पुस्तक में दिखाई देती है। इस पुस्तक की जो मूल चेतना है वह एकाकीपन है, जो आधुनिक भौतिकतावादी संस्कृति ने हमें दी है और जिससे न केवल भारत बल्कि विश्व की संस्कृति जूझ रही है।
सत्र में डॉक्टर सुमित नागर, अरशदा रिजवी, मोनी चौधरी, शिवानी, अंजू ललित आदि शोधार्थियों ने अपने शोध पत्र प्रस्तुत किये। डॉ राकेश पांडे ने कहा यदि हम प्रवासी साहित्य को बार-बार एक ही तरफ से उठाने लगते हैं तो इसका मतलब है कि प्रवासी साहित्य की समझ उतनी विकसित नहीं हुई है जितनी कि अभी तक हो जानी चाहिए थी। रचनाकार प्रवासी होने से साहित्य प्रवासी नहीं हो जाता। मूल्यांकन रचना के प्रति करना चाहिए ना की रचनाकार के प्रति। खाड़ी देशों में जब युवा कमाने जाता है तो उसे जिन परिस्थितियों का सामना करता करना पड़ता है वह प्रवासी साहित्य में अभिव्यक्त होता है। प्रवासी साहित्य कितने संघर्षों से होकर गुजरता है इसे समझने की जरूरत है। सुधा ओम ढींगरा अमेरिका में रह रही है लेकिन पंजाब की है तो उन्होंने अपनी साहित्य में संघर्षों को उकेरा है। प्रवासी लेखक को लेखक न मानकर उन्हें हिंदी का प्रचारक मानना चाहिए। प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी को मैं बधाई देता हूं कि उन्होंने  प्रवासी साहित्य पर विचार विमर्श के लिए एक मंच प्रदान किया।

 

 

 

संगोष्ठी के समापन सत्र में अध्यक्ष प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी, मुख्य अतिथि प्रोफेसर वाई विमला, कुलपति, माँ शाकुम्भरी विश्वविद्यालय सहारनपुर, विशिष्ट अतिथि डॉक्टर वेद प्रकाश सिंह ओसाका विश्वविद्यालय जापान डॉक्टर राकेश भी दुबे रहे। सत्र का संचालन पूजा यादव शोधार्थी, हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग ने किया।
मुख्य अतिथि प्रोफेसर वाई विमला ने कहा कि मातृभाषाएं हमेशा जीवित रहेंगी। भाषा सदैव अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है और पुस्तकों में, मानव हृदय और व्यवहार में हमेशा जीवित रहती हैं। इस तरह की संगोष्ठियां भाषाओं को समृद्ध करने का काम करती है और वैश्विक स्तर पर भाषाओं की ताकत को दर्शाती है। उन्होंने प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी को बधाई दी और कहा कि प्रोफेसर लोहनी ने सदैव हिंदी के प्रचार प्रसार में महती भूमिका निभाई है।
कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी ने कहा कि भाषा जन अभिव्यक्ति का माध्यम है। यह न केवल मन के भावों को अभिव्यक्त करती है बल्कि विचारों को ताकत के साथ प्रस्तुत करती हैं इसलिए जो भाषा जितनी सशक्त होगी उसको बोलने वाले भी उतने ही मजबूत होंगे। साहित्य भारत भूमि पर लिखा जाए या प्रवास में लिखा जाए उसकी संवेदनाएं मानव को छूती है इसलिए साहित्य साहित्य है और उसका महत्व उसके साहित्य होने में है ना कि वह कहां रचा गया इसमें। इसलिए प्रवासी साहित्य भी हिंदी साहित्य का हिस्सा है। हमें उसे प्रवासी कहकर हिंदी से अलग नहीं करना चाहिए। अन्य वक्ताओं ने भी इस अवसर पर अपने विचार रखें। इस अवसर पर डॉ सुनीता मौर्य, डॉक्टर मंजू शुक्ला, डॉक्टर गजेंद्र सिंह, आरती राणा, डॉक्टर विद्यासागर सिंह, डॉक्टर प्रवीण कटारिया, डॉक्टर यज्ञेश कुमार, डॉ सुमित नगर डॉ अंचल कुमारी दो निर्देश चौधरी, विनय, विपिन कुमार, आयुषी, एकता, नेहा ठाकुर, रिया सिंह ,विक्रांत, शौर्य, राजकुमार, प्रिंसी आदि छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।

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