इस संसार में दो तरह के लोग पाए जाते हैं (1) आस्तिक (2) नास्तिक। दोनों के विचार एक दूसरे के विपरीत होते हैं। आस्तिक ईश्वर की मूर्ति, वेदज्ञान, तथा धर्म ग्रंथ के अनुसार पाप-पुण्य का सहारा लेते हुए अपने कर्तव्य मार्ग पर बढऩे वाला होता है। उसे पत्थर हो या चित्र, दोनों में साक्षात देव नजर आते हैं जबकि नास्तिक इस तरह की बातों को नकारते हुए वैज्ञानिक व साक्षात् दृष्टिकोण वाली अवधारणा को मानता है। उसका विचार होता है कि जिस धारणा का आधार नहीं है, वह कपोल कल्पित है।
नास्तिक व्यक्ति दुनियां में धर्म कर्म की बातों की बजाय बेवकूफी, आधुनिकता व पश्चिमी धारणा पर जीना पसंद करता है।
धर्म या अध्यात्म हमें जीने की राह दिखाते हैं। हमारे धार्मिक ग्रंथों में उल्लेखित कथाओं को नास्तिक विचार से भले ही कल्पित मान लें परंतु वे किसी न किसी रूप में हमें अनाचार से बचाती हैं, हमें मानवीय दृष्टिकोण से जीने की प्रेरणा देती हैं। हमें अहम्, क्रोध लोभ वैचारिक अज्ञानता से बचाती हैं।
नास्तिक स्वभाव से औरों को नीचा दिखाने में तथा अभिमान से प्रेरित हो कर कुछ भी कर गुजरता है। उसकी एक ही सोच होती है जीवन में आगे बढऩे के लिए कि धन और बल ही सब कुछ है। वेदों में असुरों का प्रतीक नास्तिकों को माना गया है क्योंकि वेद कथाओं में जितने भी असुर हुए हैं वे सब लोभ, आचरण हीनता, क्रोध, द्वेष, घृणा, अनाज्ञाकारी व बलप्रदर्शन से युक्त रहे हैं।
एक कथा देखें। नास्तिक और आस्तिक मित्रों में बहस छिड़ी थी। आस्तिक ने कहा-सुनो, मंदिर में से कांसे की दस किलो वजन की मूतियां चोरी हो गयी।
हां, सुना तो है। थाने में रिपोर्ट तो दर्ज करा दी होगी। नास्तिक ने प्रश्न किया।
हां, करा दी गई है और लोगों ने चंदा इकट्ठा कर चोरों या मूर्ति का पता बताने वालों के लिए इनाम भी घोषित किया है। पुलिस तहकीकात में लगी है देखो कहाँ तक पता लगा पाती है। आस्तिक ने कहा।
बड़े अजीब हैं यार भगवान। खुद की रक्षा नहीं कर सकते। इस कलयुग में आदमी तो आदमी, भगवान को भी पुलिस की जरूरत पडऩे लगी। नास्तिक ने कहा।
क्या करें, मूर्ति थी।’ आस्तिक ने कहा।
मूर्ति रहे या पत्थर, आस्था तो तुम्हारी देवता की है। अगर आस्था ही हाथों का खिलौना बन जाए तो क्या औचित्य है ऐसी आस्था का। नास्तिक ने कहा।
कथा के मुताबिक आस्तिक के पास चुप रहने के अलावा और कोई रास्ता न था। स्पष्ट है मूर्ति है, आस्था को जीवित रखने का प्रतीक है, यह बात भक्त समझ सकता है परन्तु नास्तिक को चाहिए तात्कालिक चमत्कार जो वह मूर्ति नहीं दिखा सकती।
ईश्वर का दण्ड अप्रत्यक्ष होता है। जब ईश्वर दण्ड देता है तब यह समझ में नहीं आता कि आखिर व्यक्ति परेशानी से क्यों घिर रहा है। तब उसे आखिर ईश्वर ही याद आते हैं। फिर जा पहुंचता है ईश्वर की शरण में। फिर वह यह नहीं देखता कि मूर्ति के सामने सिर पटक रहा है या फिर चित्रात्मक प्रतिकृति पर लेकिन ईश्वर उस माता-पिता के समान होते हैं जो कपूत के प्रति प्रेम दर्शाने से नहीं चूकते।
कपूत लाख जुल्म ढाये पर माता-पिता उसका अहित होते नहीं देख सकते। ईश्वर की दृष्टि भी नास्तिक आस्तिक पर समान होती है। बस नजरिया अपना अपना है उस अप्रत्यक्ष शक्ति को समझने का।
– सुनील कुमार ‘सजल’