Saturday, December 28, 2024

कहानी: क्या शेष है मेरे पास?

पूरे तीस साल बरस बाद हम एक जगह मिल रहे थे। इस बीच कई बार, पत्रों से, फिर टेलीफोन से, फिर मोबाइल फोन से हमारी बातचीत होती रही, लेकिन अक्सर बातचीत घुमा-फिराकर आ ठहरती थी, गुरुजी पर।
हम तीनों ने एक मत से यह बात तय कर ली थी कि चाहे कुछ भी हो, हम जरूर गुरुजी से मिलेंगे। पूरे तीस बरसों में न जाने कितने परिवर्तन मुझमें आ गए होंगे, न जाने कितने परिवर्तन सुनील, अनिल में आ चुके होंगे। हम तीनों की एकजुट थी। हम तीनों एक ही स्थान पर पढ़ते थे। कभी स्कूल से गोल मारते तो तीनों ही साथ चले जाते थे। यदि एक दिखलाई देता तो दो दोस्त कहां हैं इसकी जानकारी उससे मिल जाती थी। हममें कभी मनमुटाव होता भी तो थोड़ी देर में वह समाप्त हो जाता था। अनिल तो कहता भी था कि- ‘कभी तलवार से पानी कटता भी है?
हम तीनों की दोस्ती के चलते तीन परिवारों में भी काफी मेल-जोल था, हम तीनों अलग-अलग गांवों में रहते थे, लेकिन पढ़ाई के लिए गांव के छोटे से स्कूल में आते थे। देनवा नदी के किनारे हमारे स्कूल का गांव था। पहाड़ों के मध्य, आने-जाने के लिए कोई भी मार्ग नहीं था। बरसात में छोटे-छोटे बरसाती नाले उफान पर आ जाते तो पूरा गांव एक टापू हो जाता था। जितनी जल्दी ये नाले उफान पर आते, उतनी ही जल्दी इनका पानी भी उतर जाता था। अक्सर बरसात के मौसम में ही हम स्कूल से भाग जाते थे। छुट्टी में दौड़कर छोटे-छोटे नालों में कूदकर खूब नहाते थे। जीवन का असली आनंद ही नहीं, बचपन का सही आनंद हम ही ले रहे थे।
दुर्गम मार्गों के कारण हमारे गांव के स्कूल में कोई शिक्षक टिकता ही नहीं था। कोई एक माह, कोई पन्द्रह दिनों के बाद जो छुट्टी लेता तो फिर लौटकर नहीं आता था। जब पाठशाला में कोई शिक्षक नहीं होता तो हमारे दिन बड़े मजे से कटते थे। परिवार के सदस्य कहते भी कि पढऩे जाओ तो मैं पलटकर कह देता कि क्या करेंगे जाकर वहां तो मास्टर है ही नहीं। पढ़ाई नहीं करना बड़ा भला लगता था। पाठशाला कैद लगती थी। लेकिन यह हमारा भ्रम था। तब ही एक दिन गांव में सूचना आई कि-
‘कल से स्कूल जाना है।’
‘क्यों?’
‘गुरुजी आ रहे हैं।’
‘हे भगवान’  मैंने कहा था।
अगले दिन सुबह-सुबह हम तैयार होकर स्कूल चले गए। सफेद पायजामा-कुर्ता में गुरुजी पाठशाला के दरवाजे पर खड़े थे। लम्बा कद, लम्बी नाक, हाथ में कोई किताब। हम जैसे ही दरवाजे पर पहुंचे उन्होंने नाम पूछा और अपना नाम बताया और क्लास में बैठने को कहा। गुरुजी से यह भेंट का प्रथम मौका था। मैं अनिल और सुनील का चेहरा देख रहा था। तीनों सोच रहे थे- ‘पता नहीं यह कब चले जायेंगे लेकिन यह सोच हमारी गलत साबित हुई।
पहले दिन उन्होंने बिलकुल भी नहीं पढ़ाया। केवल परिचय लिया, ताली बजाकर एक-दो गीत गाए, उनकी आवाज बड़ी सुरीली थी। इस तरह गुरुजी का सहज दिखना हमें आश्चर्य में डाल रहा था। यह आश्चर्य दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही गया, जब गुरुजी ने हमें नाचते-गाते पढ़ाना शुरू किया। छुट्टी में साथ खेलना शुरू किया। गुरुजी अब शिक्षक नहीं थे। कभी-कभी हम तीनों उनसे झगड़ भी लेते थे।
पढ़ाई करने में मजा आने लगा था। गणित ऐसे पढ़ा देते थे, मानो खेल, खेल रहे हों। कहां से यह सब सीखा हम जान नहीं पाते थे, लेकिन गीत गाना, कविता करना, नाटक करना, देश प्रेम के किस्से, हमने सब गुरुजी से सीखे। एक बार हमें मालूम पड़ा कि- उनका स्थानान्तरण हो गया है, तो गांव वाले उनके तबादले को निरस्त कराने को चले गए।
प्राथमिक शाला से मिडिल स्कूल हो गया था। शिक्षक और आ गए थे, लेकिन जितनी लगन से गुरुजी पढ़ाते, जितना प्रेम गुरुजी हमसे करते शायद ही कोई करता। कभी-कभी कहते भी थे- न जाने तुम बड़े होकर मुझे याद रखोगे भी कि नहीं?
‘कैसी बातें करते हो गुरुजी, मरते दम तक याद रखेंगे सुनील कहता।
‘आपने हमें देखना, सोचना, बोलना सिखलाया है। हम भला कैसे भूल सकते हैं। अनिल कहता।
जब हम ऐसा कहते तब उनकी आंखों में जो ममत्व होता उसको लिखा नहीं जा सकता। वह हम तीनों को अपने से चिपटा लेते थे। मिडिल के बाद हायर सेकण्डरी स्कूल के लिए हमें शहर आना पड़ा और फिर कॉलेज की पढ़ाई भी हम तीनों मित्रों ने साथ में की, लेकिन जब भी छुट्टियों में गांव गए याद से गुरुजी से मिलने पाठशाला जाते। चरण स्पर्श करके उनसे आशीर्वाद लेते। वह भी वहां उपस्थित नए छात्रों को परिचय देते और बताते कि- ‘ये तीनों बड़े ऊधमी छात्र थे, लेकिन इन्होंने पढ़ाई में मन लगाया और आगे बढ़ते रहे हैं। हम अपनी प्रशंसा सुनकर सिर नीचा किए खुश होते रहते थे।
कुछ महीनों बाद मालूम पड़ा कि गुरुजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है, इसलिए उन्होंने स्थानांतरण करवा लिया है। वह कहां हैं? उनका पता क्या है? यह हम पता करके रखते थे। इस बीच गुरुजी ने भोपाल में गांधी कॉलोनी में एक जमीन का टुकड़ा खरीदकर छोटा-सा मकान बना लिया था। हम तीनों वहां जाकर मिल भी आए थे। उनके बेटे-पुत्री भी थे, उन्हें भी हमसे मिलकर प्रसन्नता हुई थी।
उसके बाद हम कोर्स करने के लिए सदैव के लिए बिछड़ गए। कभी मैं गांव पहुंचता तो सुनील नहीं रहता और कभी सुनील मिलता तो अनिल नहीं होता और कभी दोनों नहीं मिलते थे। मैं अकेला जंगल, नदी, नालों के किनारे जाकर अपनी स्मृतियों को ताजा करता- सच बताऊं तो नेत्रों में आंसू आ जाते।
विवाह हुआ, बच्चे भी हुए, हमारी प्राथमिक शिक्षा में रोपे गए शौक एवं ज्ञानवर्धक शिक्षा ने कभी हमें पीछे पलटकर देखने नहीं दिया। गुरुजी के प्रति मन में अथाह श्रद्धा थी। हम सबकी बड़ी इच्छा थी कि- गुरुजी से एक बार भेंट कर लें और उन्हें बतायें कि उनके द्वारा रोपे गए पौधे आज वृक्ष बन गए हैं। इसी कारण तीनों ने आपस में बातचीत की और हजारों काम होने पर भी आज की तारीख तय की थी।
राजधानी भोपाल के एक पार्क में मिलने के लिए समय निश्चित कर लिया था। मैं सुबह दस बजे पार्क में पहुंच गया था। थोड़ी देर में सुनील और अनिल भी टैक्सियों से उतरे- ‘अबे मोटू’ कहकर हम एक-दूसरे से गले मिले। हम मिलकर बहुत खुश हुए। थोड़ी देर अतीत की जुगाली करने के बाद तत्काल गुरुजी से भेंट करने की बात आ गई।
हम तीनों ने एक टैक्सी की और गांधी नगर कॉलोनी में जा पहुंचे। इतने बरसों में पूरी कॉलोनी की रूपरेखा ही बदल गई थी। हम लोगों के मन में कहींं ना कहीं यह अदृश्य भय छुपा हुआ था कि कहीं गुरुजी का स्वर्गवास तो नहीं हो गया हो? लेकिन ऐसी अशुभ बातें तीनों में से कोई कहना नहीं चाह रहा था। घर खोजते हुए हम आखिर पते पर पहुंच ही गए। तीन अपरिचितोंं को देखकर घर की महिलाएं थोड़ी असहज हो गई थीं। जब हमने गुरुजी का नाम पूछा तो वह कुछ सामान्य हुईं, लेकिन उनकी आंखों में अजीब-सा एक भाव था- क्या था वह हम तीनों समझ नहीं पाए। वह हम तीनों को गुरुजी के कमरे में ले गईं। गुरुजी कमरे में एक खिड़की में सिर रखे दूर क्षितिज की ओर देख रहे थे। हम आगे बड़े तो वह महिला जो शायद उनकी बहू थी। उसने बताया कि- ‘गुरुजी अपनी स्मृति खो चुके हैं।’
सुनकर हम तीनों के नेत्रों में आंसू आ गए। हम तीनों जाकर उनकी कुर्सी के पास नीचे बैठ गए। आहट के कारण उनकी तन्द्रा भंग हुई- अपरिचित-सा भाव नेत्रों में आकर तैर उठा।
गुरुजी मैं मुकेश, ये अनिल, ये सुनील हमने याद दिलाने के बाद चरण स्पर्श किया। चेहरे पर कोई भी परिचय भाव नहीं उभरा। मनुष्य का यह कौन- सा रूप है? ईश्वर ने आखिर ऐसी सजा क्यों दी? इन्हीं के कारण तो आज हम इतना पढ़-लिख पाए।
‘गुरुजी हम खापा गांव के रहने वाले हैं ‘  सुनील ने बताया। कुछ देर ठहरकर फिर कहा- आपने हमें गीत गाना, कविता करना, नाटक करना सब कुछ सिखलाया था। ‘अच्छा ‘   उनके नेत्रों में अजीब-सा एक दीप जलता दिखलाई दिया, जिसका प्रकाश हमने अनुभव किया।
‘आपने हमें नाटक करना, नाचना सब सिखलाया था, आपके मार्गदर्शन के चलते ही हम आज इतने आगे बढ़ पाए। अनिल ने बातों को आगे बढ़ाया।
‘गुरुजी हम कभी भी आपको नहीं भूले- आज इतने बरसों बाद भी आपके दर्शन करने आए हैं, ताकि आपका आशीर्वाद ले सकें मैंने कहा।
कांपते हाथों से गुरुजी ने हमारे माथे पर हाथ रखा फिर कहने लगे- ‘बुढ़ापा है- मुझे कुछ भी याद नहीं रहा… सब भूल गया हूं…. तुम कौन हो?
‘मैं मुकेश, ये अनिल, ये सुनील हमने उत्साह से भरकर कहा।
‘जीते रहो उनके कांपते शब्द थे। ‘गुरुजी आपको अब कुछ भी याद नहीं। सुनील ने आश्चर्य से पूछा।
‘हां बेटा- मेरी स्मृति में जितना था- चाहे वह शिक्षा हो, चाहे साहित्य या कला मैंने कुछ भी अपने पास नहीं रखा… सब कुछ दे दिया… तुम ही बताओ बरसों से देते-देते अब मेरे पास शेष रह क्या गया होगा? कुछ पल तक हमारे मध्य मौन पसरा रहा, फिर उन्होंने कहा- ‘कुछ शेष बचाकर रख लेता तो स्वार्थी कहलाता… आज जो कुछ भी मैं विस्मृत कर चुका हूं, वह तुम्हारी स्मृतियों में कैद है… आज मैं तुम्हारे अंदर जीवित हूं, यही मेरे जीवन की सफलता है… है न। यह बातें कहते-कहते उनकी सांस फूल गई…
और वह फिर खिड़की में सिर रखकर क्षितिज की ओर देखने लगे। हम खामोशी के साथ उठकर कमरे में से चले आए।
उम्र के इस पड़ाव पर भी उन्होंने हमें सेवा और सदैव दान देने की शिक्षा से अवगत कराया था।
हम भरे मन से, डबडबाई आंखों के साथ लौट आए। लगा कि उनकी आंखें हमें दूर तक जाते हुए देख रही हों।
डॉ. गोपाल नारायण आवटे – विभूति फीचर्स

- Advertisement -

Royal Bulletin के साथ जुड़ने के लिए अभी Like, Follow और Subscribe करें |

 

Related Articles

STAY CONNECTED

74,303FansLike
5,477FollowersFollow
135,704SubscribersSubscribe

ताज़ा समाचार

सर्वाधिक लोकप्रिय