मनुष्य का जीवन बहुत छोटा है और बहुत अमूल्य (मनमोल) भी। मरणासन्न व्यक्ति को भगवान यदि एक दिन का जीवन और दे दें तो वह उसे जितना अमूल्य समझेगा उतना ही अमूल्य मनुष्य को अपने जीवन का एक-एक दिन मानना चाहिए।
उसे अपने एक-एक क्षण का पूरा सदुपयोग करना चाहिए और उसका लाभ उठाना चाहिए। सदुपयोग यही है कि उसे सदैव सत्कर्मों के साथ जीवन व्यतीत करना चाहिए। भूले से भी दुष्कर्म न करें। जीवन का प्रत्येक क्षण हंसकर, प्रसन्न रहकर बिताये। कष्ट आये, बाधा आये उस समय भी प्रसन्न रहने का यत्न करे, सात्विक प्रसन्नता जीवन का सबसे बड़ा लाभ है।
स्वयं भी प्रसन्न रहे और दूसरों को भी प्रसन्न रखने का प्रयास करे। प्रसन्नता मूल्यवान है तथा स्वास्थ्यवर्धक औषधियों में सबसे बड़ी आषधि भी है। दुष्कर्मों को करते हुए वह कभी प्रसन्न रह ही नहीं सकता। दुष्कर्मों का कुप्रभाव दूसरों पर भी निश्चित रूप से पड़ेगा। दूसरे उसके दुष्कर्मों के कारण प्रसन्न कैसे रह सकते हैं। अत: सत्कर्म ही उसका जीवन का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए।