आज जिधर देखो मंदिरों में, गुरूद्धारों में, मस्जिदों में भीड़ लगी है। सत्संगों में अपार भीड़ है, जिससे प्रतीत होगा कि दुनिया की अधिकांश जनसंख्या बहुत धार्मिक हो गई है, परन्तु क्या वास्तव में ऐसा है?
यदि ऐसा होता तो यह धरती स्वर्ग हो जाती, चहुंओर शान्ति का साम्राज्य होता, किसी की आंख में आंसू न होते, दुनिया में ये गम और चिंता की आग महसूस नहीं होती। यदि मंदिरों और गुरूद्धारों में मत्था टेकने वाले, मस्जिदों में अजान देने वाले और नमाजी तथा गिरजाधरों में प्रार्थना करने वाले धार्मिक होते तो अधर्म कहीं होता ही नहीं, असत्य कहीं न होता, दुख कहीं न होता, चिंता कहीं न होती।
सच्चाई यह है कि हम चित्त लेकर मंदिर नहीं जाते। हम वहां अपने देवता को मनाने जाते हैं कि वे प्रसन्न हो जाये और प्रसन्न होकर हमारी मनोकामनाएं पूर्ण कर दें, हमारा अपना संसार सुखों से भरपूर हो जाये। देवता से कहते हैं कि हम तो हार गये पर कामना पूरी न कर सके अब तो तू ही कृपा कर ताकि हमारा बेडा पार हो जाये।
यह भक्ति नहीं यह तो व्यापार है। हम व्यापारी बन गये। यदि हम दिखावा छोड़ वास्तव में भक्त बन जाये, धार्मिक बन जाये तो फिर देखिए यह संसार कितना सुन्दर और शांत दिखाई देगा।