मैं चर्चा श्रीराम की कर रहा हूं। जब सिंहासन के स्थान पर वन के शूल भाग्य लिखने लगे और फिर भी मन के किसी कोने में अप्रसन्नता न उभरे, सामान्य रहे, समभाव रहे, क्या यह साधारण बात है? नि:संदेह महामानव ही ऐसी अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में समभावी रह सकता है।
समता, स्थित प्रज्ञता जीवन का अमृत है, जो जीवन को अमृत के रूप में जीना चाहते हैं। उन्हें समता को अपने प्राणों में उतारना होगा। इसके विपरीत कह सकते हैं जीवन उन्हीं के लिए अमृत है, जो जीवन को एक खेल की तरह जीते हैं। सच्चा खिलाड़ी वह होता है, जो जय-पराजय को समान भाव से गले लगाता है।
सच्चा खिलाड़ी जय में फूलता नहीं और पराजय में पीड़ा की प्रतिमा नहीं बनता। वह जय-पराजय को जीवन का अनिवार्य अंग मानता है। स्थित प्रज्ञ व्यक्ति (दुख-सुख में समभावी रहने वाला) भी जीवन को एक खेल से अधिक कुछ नहीं मानता। वह जानता है कि सुख और दुख जीवन के दो पक्ष हैं।
सुख भी अस्थिर है और दुख भी अस्थिर है, सम्मान भी अस्थिर है और असम्मान भी अस्थिर है, समृद्धि भी अस्थिर है और असमृद्धि (निर्धनता) भी अस्थिर है। धूप और छांव का खेल है यह जीवन अच्छा-बुरा जीवन का अनिवार्य अंग है। फिर कैसा शोक और कैसा हर्ष।