विभिन्न पूजा स्थलों और तीर्थ स्थानों पर जाकर हम समझते हैं कि ये परमात्मा के स्थान हैं, इसलिए वहां उसके दर्शनों का उसकी अनुभूति का लाभ हमें प्राप्त होगा। वास्तव में तो पूजा स्थल उस प्रभु के भक्तों के संगतिकरण के स्थान हैं। यद्यपि वहां हमें कुछ मानसिक शान्ति का आभास भी होता है, किन्तु सत्यता यह है कि परमात्मा सर्वव्यापक है, वह मनुष्य की अन्तर्गुहा में स्थित होकर हर क्षण आत्मोत्कर्ष की प्रेरणा देता है, किन्तु मनुष्य अपनी स्वेच्छाचारिता के कारण अन्तर की पुकार सुनकर भी अनसुनी कर देता है, जिसका दण्ड, रोग, शोक, क्लेश, कलह, सन्ताप आदि के रूप में भुगतना ही पड़ता है।
जन्म के पूर्व से लेकर जीवन सत्ता के अस्तित्व में आने, परिपक्व होने, क्रियाशील और समर्थ बनने तक परमात्मा जीव को मां की तरह गोदी में खिलाता, आपदाओं से बचाता, बुद्धि में परिपक्वता आने पर पाप न करने के लिए समझाता तथा डराता भी है। इतनी करूणावान सत्ता का संरक्षण प्राप्त होने के बावजूद हम कितने अभागे हैं कि उस परमसत्ता की ध्वनि को सुना अनसुना कर दुख के भागी बनते हैं।
परमेश्वर ने हमें संसार में इसलिए भेजा है कि हम अपने-अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हुए उनसे सच्चा नाता जोड़कर अपना जीवन सफल बना लें। हमारा कर्त्तव्य बनता है कि प्रभु की उदारता, दया और कृपा का अनुचित लाभ न उठाकर हम सन्मार्ग के पथिक बने रहे। भूले से भी भटकन के मार्ग पर न जायें।