जिस प्रकार नदियां अपना जल स्वयं नहीं पीती न अपने किसी अन्य कार्य में प्रयोग करती, वरन कृषकों के खेतों की सिंचाई कर उन्हें धन धान्य से परिपूर्ण कर देती है। फलदार वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते, दूसरों को दान कर देते हैं।
उसी प्रकार पर हित पारायण व्यक्ति अपने लिए न ही दूसरों के लिए जीवित रहता है। जिस मनुष्य में दया, परोपकार, उदारता, ममता, दानशीलता, मानवता तथा सहनशीलता के भाव नहीं होते वह तो साक्षात पशु के समान है।
मनुष्य का कर्तव्य है कि वह केवल अपने ही विषय में न सोचे वरन परहित के लिए भी कार्य करें। दूसरों की भलाई करना, परोपकार करना, परम धर्म है, सर्वोपरि धर्म है। परोपकारी स्वार्थ की भावना से रहित होता है, उसमें सदैव परहित चिंतन का भाव प्रतिष्ठित रहता है।
वेद उपनिषद आदि धर्म ग्रंथों का मूल तत्व यही है कि मनुष्य परोपकार में संलग्र रहे तथा मन, वचन अथवा कर्म द्वारा किसी को पीड़ा न पहुंचाये। किसी का अहित न करे। सेवा, परोपकार, दया, ममता और उदारता से युक्त व्यक्ति की लोक में प्रतिष्ठा होती है, उसकी कीर्ति भी अमर हो जाती है। अत: परहित चिंतन को कर्तव्य समझकर अपना जीवन सफल बनाना चाहिए।