जैसे कक्ष में टंगी घडी की टिक-टिक तभी सुनाई दे पाती है, जब बाहर भीतर शांति हो। यदि घर में अथवा बाहर गली या सडक पर शोर शराबा होने लगे, बाजे बजने लगे, तो घडी की टिकटिक की ध्वनि शोर में दब जायेगी। इसी प्रकार मनरूपी कक्ष में परमात्मा की ध्वनि घडी की भांति अपने अस्तित्व का बोध कराती रहती है, किन्तु बाहर की इच्छाओं और वासनाओं के बाजे हम बजा रहे हैं।
उन्होंने परमात्मा की ध्वनि को ही दबा दिया है। भीतर के पट तो तब खुलेंगे जब बाहर के पट बंद हों। बाहर के पट बंद होने से तात्पर्य है विषय वासनाओं का परित्याग। इच्छाओं का संबंध अनेक वासनाओं से है। ये वासनायें ही कर्म का मूल कारण है। वासनाओं की पूर्ति हेतु कर्मों यह भेद नहीं रहता कि वे अच्छे हैं अथवा बुरे, नैतिक अथवा अनैतिक, त्याज्य अथवा ग्राह्य।
इन्हीं कर्मों के कारण हम योनियों में घूमते रहते हैं और दुख उठाते रहते हैं। यह सब जानते हुए भी मन की दुर्बलता के कारण हम ऐसे कर्म करते रहते हैं, जो हमें नहीं करने चाहिए और आत्मा जो परमात्मा के प्रतिनिधि के रूप में हमारे भीतर विराजमान है, की ध्वनि की उपेक्षा कर देते हैं।