मनुष्य की बहुत बड़ी दुर्बलता यह है कि हम अपनी एक हजार भूले और की गई त्रुटियां नजर अंदाज कर देते हैं, परन्तु दूसरे की एक भूल भी सहन नहीं कर पाते। यह जीवन तो सामंजस्य, सहिष्णुता और सहनशीलता से ही चलता है।
सहिष्णुता से ऊर्जा जगती है और उसके अभाव में ईर्ष्या, द्वेष आदि की अग्रि पैदा हो जाती है। सच्चाई यह है कि जो सहना जानता है वही जीना जानता है, जबकि आज के मनुष्य की समस्या यह है कि वह कहना तो बहुत कुछ चाहता है, दूसरों को उपदेश और नसीहत देने में बड़ी तत्परता भी दिखाता है पर स्वयं सुनना और सहना नहीं चाहता, स्मरण रहे सहना कायरता नहीं, बल्कि मजबूती और ताकत है।
इसके प्रभाव से कठिनतम कार्य भी सरलता से अविलम्ब सम्पन्न हो जाते हैं। सहनशीलता तो एक साधना है, तपस्या है, जिसकी परीक्षा में बड़े-बड़े त्यागी और तपस्वी भी धराशायी हो जाते हैं। सच्चा साधक ही सहिष्णु बन पाता है, क्योंकि सहनशील और सहिष्णु व्यक्ति ही महानता के शिखर तक पहुंचने की सामर्थ्य रखते हैं।