सभी मनुष्यों के शरीर नाशवान है। जिन्हें हम अवतार, पैगम्बर, महामानव, संत, पुरूषोत्तम, पीर, ओलिया मानते हैं, उनके शरीर भी नहीं रहे। जिन पंच भूतों से उनके शरीर की रचना हुई थी उन्हीं में विलीन हो गये। एक न एक दिन शरीर सबका छुटना है।
ज्ञानी हो अज्ञानी हो, राजा हो या रंक हो, धनी हो, चाहे निर्धन हो, छोटा या कोई बड़ा हो, सभी पुराने वस्त्रों की तरह अपने शरीर को यहीं छोड़ देते हैं। इस सत्य को स्मरण रखने वाला कभी कुमार्ग को अपनायेगा ही नहीं, क्योंकि उसे यह ज्ञान हो जाता है कि मैं शरीर नहीं, शरीर तो मेरे कार्य करने का साधन है, मैं तो निरन्तर, अजर, अमर, अपरिवर्तित और अविनाशी आत्मा हूं और मुझे समय-समय पर प्राप्त शरीरों द्वारा किये गये मेरे कर्मों के अनुसार ही प्राप्त होता रहेगा।
मैं तो जीवन मृत्यु से परे हूं, किन्तु उस मैं को जानना भी सरल नहीं, सीमित बुद्धि द्वारा इस मैं को पहचानना असम्भव है। उस प्रज्ञा बुद्धि को पाने के लिए निरन्तर साधना करनी होगी, किन्तु मनोरंजक सत्य यह भी है कि साधना भी इस शरीर के द्वारा ही होगी।
आत्म तत्व को पहचानने के लिए सहारा भी इस शरीर का ही लेना होगा। यदि साधना द्वारा इस आत्म तत्व को पहचान लिया तो इन शरीरों से छुटकारा भी मिल जायेगा।