पाप से बचने के लिए पूर्व में किये गये पाप कर्मों के लिए प्रायश्चित किया जाता है। प्रायश्चित अर्थात पूर्व में किये गये पाप कर्मों के लिए पश्चाताप तथा ऐसे पाप कर्म भविष्य में न करने का संकल्प करना। जब हम प्रायश्चित करते हैं और सच्चे मन से करते हैं तो पाप बुद्धि पर विराम लग जाता है और धर्म और सत्कर्म की ओर उन्मुख हो जाते हैं। हममें सुधार होना आरम्भ हो जाता है, अनुकूल चारित्रिक पविर्तन होने लगता है अर्थात वह सचचरित्र हो जाता है, क्योंकि परिवर्तन के बिना प्रायश्चित ऐसा है जैसा छिद्र बंद किये बिना नाव से पानी निकालना। पुन: उस पाप को न करने का संकल्प ही प्रायश्चित है। पहले जमें पाप के प्रभाव को उस प्रवृत्ति से तो स्वयं को मुक्त करना ही होगा। ध्यान रहे प्रायश्चित से वास्तव में कोई पाप क्षीण नहीं होता, क्योंकि किया गया पाप तो चित्त पर अंकित हो चुका है, उसका फल हमें इस या अगले जन्मों में भुगतना ही भुगतना है, परन्तु प्रायश्चित से पाप भावना निर्बल हो जाती है, पाप के प्रति खिन्नता पैदा हो जाती है, आत्मा में पवित्रता आती है और भविष्य में व्यक्ति पाप कर्म न करने को सावधान रहता है। इससे शेष जीवन निष्पाप व्यतीत हो जाता है।