जीवन में यदि सुख ही सुख प्राप्त हो अथवा दुख ही दुख मिलते रहे तो जीवन के वास्तविक आनन्द से आदमी वंचित ही रहेगा। जीवन आने वाले उतार-चढाव सफलता-असफलता, हानि, लाभ, मान-अपमान, परेशानियां-प्रसन्नताएं ही व्यक्ति के जीवन को सम्पूर्ण बनाते हैं। परमपिता परमात्मा ने हमें सब कुछ दिया है, आवश्यकता है अपनी विवेक दृष्टि से उस ‘सब-कुछ को ढूंढने की है। आज के युग में मनुष्य में एक दृष्टि दोष है। वह समझता है कि वही दुनिया का सबसे दुखी प्राणी है, सामने वाला सबसे सुखी व्यक्ति है। वह अपने भीतर सुखों की खोज नहीं करता, यही इसके दुख का सबसे बड़ा कारण है। जैसे परमात्मा का वास हमारे भीतर है, उसी प्रकार सुख भी हमारे भीतर है। लोग अपने दुख से इतना दुखी नहीं जितना दूसरों के सुख से दुखी है। सुखी रहना चाहते हो तो दूसरों के वैभव को अपने मन में महत्व न दो अन्यथा लोभ और तृष्णा खतरनाक स्तर तक बन जायेंगे और पूरा जीवन उन्हें पाने तथा उन्हें सुरक्षित रखने में ही समाप्त हो जायेगा। उन्हें पाने के लिए आप किसी भी स्तर तक गिर कर विनाश को प्राप्त हो सकते हैं और आपका लोक तो बिगड़ेगा ही परलोक भी बिगड़ जायेगा।