आज संसार को भौतिकवाद ने अपनी चपेट में ले रखा है। भोग साधनों के संग्रह के लोभ ने संसार में अशान्ति फैला रखी है। एक व्यक्ति को अपने जीवन निर्वाह के लिए, धर्म कार्यों जैसे यज्ञ, दान, परोपकार के लिए अपने समाज के कार्यों में भागीदारी के लिए जितने धन और जितनी सामग्री की आवश्यकता है वह उससे अधिक संग्रह करता है तो वह परिग्रह में फंसता है, जबकि श्रेष्ठ मानव बनने के लिए अपरिग्रह को अपनाना चाहिए।
अपरिग्रह अर्थात भोग साधनों के संग्रह से दूर रहना और किसी दूसरे के द्रव्य पर अपना अधिकार न जमाना। एक ओर तो तन ढांपने के लिए पर्याप्त वस्त्र नहीं और दूसरी ओर सामग्री का इतना भंडार है कि उसकी रक्षा के लिए चौकीदार तथा सुरक्षाकर्मी रखने पड़ते हैं।
एक व्यक्ति बीसियों मकानों, कोठियों और बंगलों का स्वामी है दूसरी ओर सिर छिपाने, धूप-पानी से बचने के लिए एक कुटिया भी नहीं। एक ओर सोने-चांदी का ढेर है, दूसरी ओर विष खरीदने के लिए भी पैसा नहीं है। एक ओर गोदाम भरे पड़े हैं, दूसरी ओर भूख से तड़पते मृत्यु के ग्रास बन रहे हैं। यह सब परिग्रह के कारण ही तो है। शान्ति की कामना है तो अपरिग्रह के महत्व को समझना ही होगा। अपरिग्रह को अपनाना ही इस विषमता की औषधि है।