Saturday, April 27, 2024

नवरात्रि में शक्ति पूजा की परम्परा

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नवरात्रि में की जाने वाली शक्ति पूजा इस देश की प्राचीन परम्परा है।  दुर्गा पूजा पूरे देश में हजारों वर्षों की मातृपूजा की उस परम्परा का स्मरण दिलाती है, जो आदिमकाल से चली आ रही है। आज तो इसने पौराणिक परम्परा के अनुसार उस दुर्गा की उपासना का रूप ले लिया है, जिसका चरित्र मार्कण्डेय पुराण के तेरह अध्यायों में निबद्ध है। दुर्गा के चरित्रों में दुर्गा द्वारा महिषासुर का वध, चण्ड और मुण्ड का वध, शुंभ और निशुंभ का वध इत्यादि उपाख्यान निबद्ध हैं और इनमें लगभग 700 श्लोक होने के कारण इस चरित्र को ‘दुर्गा सप्तशती कहा जाता है।

इसी का पाठ नवरात्र के 9 दिनों में भी किया जाता है और इसके तीन भाग कर, प्रथम चरित्र महाकाली को, मध्यम चरित्र महालक्ष्मी को और उत्तर चरित्र महासरस्वती को समर्पित किया गया है। पुराणों में मातृपूजा को पौराणिक आख्यानों के साथ जोड़कर इन तीनों शक्तियों को क्रमश: शिव, विष्णु और ब्रह्मा की शक्तियां बताया गया है, जबकि शक्ति पूजा को शिव की अद्र्धांगिनी पार्वती के साथ जोड़कर उसे शैव और शाक्त आगमों की तांत्रिक परम्परा का अंग भी बनाया गया है।

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तांत्रिक पूजा की यह परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। देश में जिस प्रकार वेदों की ऋषिप्रज्ञा समाहित है, उसी प्रकार तन्त्रों की साधना भी। वेदों को निगम और तन्त्रों को आगम कहा गया है। निगम और आगम का समान महत्व माना गया है। तांत्रिक विद्याओं की यह परम्परा भी इतनी विशाल और रहस्यात्मक है कि उसका ओर-छोर पाना असंभव है।

आज नवदुर्गाओं की जो पूजा की जाती है, वह पौराणिक परंपरा की देन है। पुराण में सिंहवाहिनी दुर्गा के 9 स्वरूप गिनाए गए हैं। शैलपुत्री, ब्रह्मïचारिणी, चन्द्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री।
नवरात्र के 9 दिनों की गणना के साथ तथा कन्याओं की पूजा के रूप में इनकी आज भी पूजा की जाती है किन्तु तांत्रिक परम्परा में जो शुद्ध चैतन्य की उपासना मानी जाती है, उसमें दस महाविद्याओं की साधना की जाती है। महाविद्या से तात्पर्य गुप्त विद्या से है, जिसे आगम परम्परा ने स्थापित किया है। ये आगम शैवागम और शाक्त तन्त्र दो शाखाओं में विभाजित किये जा सकते हैं। शैव तन्त्र भी शिवागम, भैरवागम आदि अनेक शाखाओं में विभक्त है। आगम साहित्य की शाखाओं में यामल, डामर, पांचरात्र आदि अनेक भेद प्रभेद शामिल हो गए हैं।

शुद्ध चैतन्य किस प्रकार हमारी चर्या को प्रभावित करता है इसका विश्लेषण कर इच्छा, ज्ञान और क्रिया तीनों का तादात्म्य करके चित्त शक्ति की उपासना इन आगमों में बतलाई गई है। मध्यकाल में शायद आगमों का शास्त्रीय पक्ष उतना चमत्कारजनक नहीं लगा जितना क्रियात्मक पक्ष। इसलिए आज, तांत्रिक क्रियाओं के रूप में मारण, मोहन, उच्चाटन आदि टोने-टोटके और श्मशान साधना, अघोर साधना जैसे प्रकार ही तांत्रिक साधना के रूप में सामान्य व्यक्ति द्वारा भ्रमवश समझ लिये जाते हैं, जबकि आगम की मुख्य विषय वस्तु ये नहीं हैं।

मध्यकाल में यौगिक क्रियाओं का समन्वय कर तांत्रिक साधना को इस प्रकार की उग्र साधना या वामाचार का रूप दे दिए जाने के कारण आज सामान्यत: ऐसी धारणा फैल गई है कि तांत्रिक क्रियाएं या तो उग्र होती हैं या किसी के अहित के लिए प्रयुक्त की जाती हैं। लोकभाषाओं में कापालिकों और योगियों की जो कथाएं प्रचलित हुईं, उनके कारण शायद यह धारणा बन गई हो।

शैवागम और भैरवागम, यामल और डामर तथा पांचरात्र (वैष्णव तन्त्र) के अतिरिक्त जो शाक्त तन्त्र है, उनका भी विस्तार बहुत विशाल है। शंकराचार्य ने अपनी आनन्द लहरी में 64 तन्त्रों का उल्लेख किया है। प्रत्येक तंत्र में किसी न किसी पुरुषार्थ का विवरण है। इनके द्वारा महामाया समस्त भुवनों को मोहित करती है। उस मोहपाश से बचने के लिये तथा जन्म-मरण के जाल से छूटने के लिए इस महामाया की उपासना की जाती है। यही कारण है कि न केवल शंकराचार्यों के प्रत्येक पीठ में, बल्कि समस्त आचार्यों के प्रतिष्ठानों में कुल देवी या उपास्य देवी के रूप में एक शक्ति अवश्य पूजी जाती है।

विवाह आदि के मंगल अवसरों पर आज भी पुरोहित षोडश मातृकाओं में गीरी, पद्मा, शची, मेधा आदि 15 माताएं पूजी जाती हैं और 16वीं माता के रूप में कुलदेवी का पूजन होता है। सारे भारत में कुल देवी कोई माता ही होती है, पुरुष देवता यह स्थान आज तक नहीं ले पाया। शक्ति पूजा की इस तांत्रिक परम्परा की प्रमुख महाविद्या दस हैं, प्रत्येक की साधना के लिए सैकड़ों तांत्रिक ग्रन्थ लिखे गये हैं। ये महाविद्या हैं- काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुरभैरवी, घूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला।

प्रत्येक महाविद्या की पूर्णता के लिए उनके साथ एक शिव जिन्हें क्रियात्मक उपासना में भैरव भी कहा जाता है, की अवधारणा की गई है। शिव और शक्ति का यह संयोग ही इच्छा और क्रिया का संयोजन है। शक्ति के बिना शिव को शव माना जाता है। शव भी शक्ति का स्पर्श पाते ही शिव बन जाता है।
इन महाविद्याओं की पूजा इतनी गुप्त रखी जाती है कि आज भी इनके वास्तविक नाम छिपाने की परम्परा है। काली को इसीलिए आद्या भी कहा जाता है, महाकाली भी, चंडी भी। तारा को द्वितीया भी कहा जाता है, उग्रतारा भी, एकजटा भी, नील सरस्वती भी। षोडशी को तृतीया भी कहा जाता है, श्री विद्या भी, त्रिपुरा, त्रिपुर सुन्दरी और ललिता भी।

श्री विद्या बुद्धि, शास्त्र, वैदुष्य, सौंदर्य और काव्य शक्ति देने वाली देवी मानी जाती है। इसलिए इसकी उपासना  सैकड़ों प्रकार विद्वत्कुलों में प्रचलित हैं। श्री विद्या के मुख्य 12 सम्प्रदाय हैं, जिनमें अनेक लुप्त हो गए हैं, कुछ आज भी प्रचलित हैं। यह माना जाता है कि वैदिक ऋषि अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा ने श्री विद्या की उपासना की थी। उन्हें सिद्धि प्राप्त होने पर उन्होंने अपने पति अगस्त्य को भी इसकी दीक्षा दी।

यह लोपामुद्रा सम्प्रदाय आज भी चल रहा है। इससे यह सिद्ध होता है कि श्री विद्या की उपासना दक्षिण भारत तक फैल गई थी, क्योंकि अगस्त्य को दक्षिण भारत का ऋषि माना जाता है। श्री यंत्र जो शक्ति पूजा का प्रमुख यंत्र है, इसे देवी का यंत्र माना जाता है। इस रहस्यात्मक यंत्र को अद्भुत सिद्धियां  देने वाला बताया गया है। तांत्रिक पूजा की इन सभी देवियों के पृथक-पृथक स्वरूप, ध्यान, बीजमंत्र, यंत्र और साधना पद्धतियां प्रचलित हैं। यद्यपि तांत्रिक साधना गोपनीय रूप से यंत्र को सामने रखकर की जाती है तथापि इन देवियों के जो स्वरूप वर्णन मिलते हैं, उनके आधार पर इनकी मूर्तियां भी बना ली गईं और मंदिर भी स्थापित हो  गये।

कोलकाता की काली का मंदिर, बांसवाड़ा में त्रिपुर सुन्दरी का मंदिर, दतिया का पीताम्बरा पीठ इसी कारण प्रसिद्ध हैं। छिन्नमस्ता का ध्यान और स्वरूप तो अत्यन्त अद्भुत है। इस देवी ने अपना सिर काटकर अपने हाथ में लिया हुआ है और स्वयं अपना खून पी रही है। संहार शक्ति के उच्छिष्ट से सृष्टि शक्ति की निरन्तरता बताने वाले इस स्वरूप का गूढ़ रहस्य तंत्र के अध्ययन से ही समझ में आ सकता है। छिन्नमस्ता को पराडाकिनी भी कहा जाता है।

बगुलामुखी को बगलामुखी भी कहा जाता है और पीताम्बरा भी। इसका स्वरूप समुद्र के बीच शत्रु की जिव्हा खींचते हुए बताया गया है। इसलिए मुकदमे में जीत के लिए या शास्त्रार्थ अथवा विवाद में शत्रु पर विजय के लिए इसकी उपासना अद्भुत फल देने वाली बताई गई है।  इसी देवी का नाम पीताम्बरा है, जिसकी उपासना पूरे देश में प्रचलित है, किन्तु जिसका दतिया (मध्यप्रदेश) स्थित पीठ प्रसिद्ध है।  मातंगी को शूद्रवर्ण की बताया गया है और उच्छित चांडाली भी कहा गया है। कमला ही लक्ष्मी का स्वरूप है, जिसकी पूजा धन के लिए की जाती है। कमला धन की देवी है तो घूमावती दारिद्रय, वैधव्य और अभावों की देवी है। हमारे यहां दोनों की पूजा होती है।  घूमावती को कुरूप, कृशकाय एवं विधवा बताया गया है। सौंदर्य के साथ असौंदर्य की यह पूजा तांत्रिक उपासना की विशेषता है।
कलानाथ शास्त्री – विभूति फीचर्स

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