जिस प्रकार हाथों की मुट्ठी में आया रेत धीरे-धीरे सरकता जाता है, उसी प्रकार जीवन रूपी कीमती समय बीत रहा है, जो पल बीत जाता है वह वापिस लौटकर नहीं आता। हमें इसकी सम्भाल करनी है, इसको सजाना है, संवारना है।
समय को सजाने और संवारने से तात्पर्य है कि हम अपनी सोच को संवारे, अपनी भावनाओं का शुद्धिकरण करें, अपने व्यवहार को सद्व्यवहार बनाये, मिलन सरिता को दृढ़ करे। हमारा चिंतन ऊंचा हो, हमारे हृदय में प्यार, करूणा, दया, के भाव मजबूत हो, कोई बेगाना नजर नहीं आये।
नर हो चाहे नारी हो, सबमें प्रभु का नूर दिखाई दे। हमारे कर्म ऐसे हो जो जीवन जीवंत हो जाये। वसुधैव कुटम्बकम की भावना का उद्घोष इसी भाव से किया गया ताकि आदमी इसी बात को समझकर अपने जीवन को वह दिशा दे, जिसकी ओर बढऩे में अपना और दूसरों का उद्धार होता है।
संसार का वातावरण जीवंत हो, रसमय हो, सुन्दर हो, एक-दूसरे के प्रति स्नेह और प्रीति का भाव हो, किसी के मन में द्वेष तथा शत्रुता के भाव न हो, यही समय को सम्भालना है यही समय को संवारना है ताकि मृत्यु के समय मन में कोई पश्चाताप न हो।