संसार के ईंट, लोहे, सीमेंट के भवन जितने आकर्षक बने मन के भवन उतने ही जीर्ण-शीर्ण एवं खंडहरनुमा हो गये हैं और उनमें निराशाओं, कुंठाओं की बड़ी-बड़ी झाडिय़ां उग आई है। इसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि बाहर का संसार आशामय एवं अन्दर का संसार निराशामय होता चला गया।
सांसारिक भवनों को जितना सजाया-धजाया, मानसिक और बौद्धिक भवन उतने ही कृशकाय एवं निस्तेज हो गये। पहले प्रकार के भवनों में सौंदर्य प्रसाधनों से जितनी चमक-धमक आई उतनी ही मन के भवनों की स्थिति जर्जर होती चली गई।
यदि सांसारिकता में प्राण और ऊर्जा होती तो उसकी स्मृद्धि, महक के खाद-पानी से मन का भवन फलता-फूलता ही बल्कि हर क्षण खिलखिलाता रहता। प्रकृत्ति का यही नियम है कि बाह्य जगत का जितना अधिक विस्तार होता रहता है अन्तर्जगत उतना ही अधिक संकुचित होता चला जाता है। दोनों में अजीब विरोधाभास है।
आज मनुष्य बाहर के संसार एवं पदार्थों से जितनी अधिक तीव्रता से आनन्द बटोरने का प्रयास करने लगा है, उतनी ही तीव्र गति से उस क्षणिक आनन्द में ऊब, निराशा, पश्चाताप, असंतोष के भावों की सृष्टि होने लगती है।