मानव भटक गया है। अपनी भटकन में वह सुखों की कल्पना मात्र भौतिक पदार्थों में ही ढूंढता है। सोचता है, यह प्राप्त होते रहे तो सुख मिलता रहेगा, किन्तु उसके द्वारा सृजित कल्पित सुखों के तालाब में अति शीघ्र ही दुखों की लम्बी-लम्बी जोके लपलपाने लगती है और प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में उसी की रक्त शिराओं का भक्षण करती है।
सुख की आशा में बोई गई सभी चाहतों को बेलों पर तन-मन वेधी पुष्प एवं कांटे उगकर पग-पग पर जीवन को गहन वेदना देकर चेताते रहते हैं, परन्तु अभिशप्त जीव तब भी अपनी अज्ञानता के अहम में फंसा इसमें लाभ पाने के दूसरे मार्ग ढूंढता रहता है।
सांसारिक तृष्णाओं की हर डोर जीव को गहरी चुभन एवं पीड़ा देकर उसे सावधान करती रहती है, परन्तु कामनाओं की दल-दल में फंसा जीव दुष्कर्मों के प्रभाव के कारण सत्य को झूठ और झूठ को सत्य समझ कर ही जीवन का दुर्लभ समय नष्ट करता रहता है और फिर वह स्वयं को उसी संताप के गहन एवं डरावने मोड पर खड़ा पाता है, जहां से उसने यह ‘तथाकथित’ आनन्द की बेल बोई थी। यह सत्य सदा स्मरण रखो कि लोहे-सीमेंट के होकर भी न होने का बोध कराते हैं, जबकि प्रभु स्मरण का भवन भौतिक रूप में न होकर भी सदैव होने का बोध कराता रहता है।