परमात्मा का साक्षात्कार यदि नहीं किया तो ध्यान कैसा और किसका ध्यान। परमात्मा कल्पना से परे है इसलिए कल्पना तो करनी भी नहीं चाहिए। कल्पना उसकी की जाती है जो मौजूद न हो, जिसका कोई अस्तित्व न हो, परन्तु जो साक्षात है, प्रत्यक्ष है उसकी कल्पना करने की आवश्यकता क्या है।
आवश्यकता है उस ज्योति स्वरूप के दर्शन करने की। बात तभी बनेगी यदि एक भूखा व्यक्ति यह कहे कि मैं भोजन कर रहा हूं और भोजन उसके समक्ष नहीं है। मात्र कल्पना के सहारे क्या उसकी भूख मिट जायेगी। प्यासा यह कहे कि मैं पानी पी रहा हूं और पानी उसके हाथ में नहीं है तो क्या मात्र इन शब्दों का जाप करने से क्या उसकी प्यास मिट जायेगी, कदापि नहीं।
इस बात का ज्ञान सभी को है तो भगवान के बारे में ऐसा क्यों करते हैं। मैं तेरी ज्योति का तेरे प्रकाश स्वरूप का ध्यान करता हूं, कहने से काम नहीं बनेगा, बल्कि साक्षात अनुभव करना होगा। पहले पात्रता पैदा कर उस ज्योति को साक्षात करें तभी सच्चे अर्थों में गायत्री महामंत्र का भाव समझा जा सकता है। पापमय विचारों के रहते मलिन आत्मा और अपवित्र मन के साथ ध्यान का, भक्ति का, पूजा-अर्चना का कितना भी प्रदर्शन करे सब व्यर्थ है।