मनुष्य चाहे किसी भी धर्म को मानने वाला हो आत्मिक शान्ति के लिए प्रार्थना, पूजा, अर्चना करता रहता है, किन्तु फिर भी मनोवांछित लाभ नहीं मिल पाता। जब तक मन नियंत्रित और अनुशासित नहीं होता, जीवन में भटकाव रहता है। इसलिए कहा गया है कि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
आज से 60-70 वर्ष पूर्व अधिक पढ़े-लिखे लोग नहीं थे, पर व्यवहारिक ज्ञान में अत्यंत निपुण थे। उस समय सभी सम्बन्धों और रिश्तों में आत्मीयता और मधुरता दिखाई देती थी। वर्तमान में शैक्षिक एवं वैज्ञानिक उन्नति ने समृद्धि में वृद्धि की है, पर मन की शान्ति भंग हो गई है।
सामंजस्य के अभाव में आज ईर्ष्या, द्वेष, कलह एवं वैमनस्यता का विष वमन हो रहा है। आज के जीवन में असत्य चिंतन, असत्य आचरण, असत्य भाषण बढ़ता जा रहा है। मनुष्य की प्रकृति प्रभावित हो रही है, क्योंकि सद्विचारों की निर्मल धारा विषाक्त विचारों में परिवर्तित हो गई है। इसलिए विचारों का भटकाव समाप्त किया जाये, यथार्थ का सामना करे। मन के मैल को धो डाले।
द्वेष, ईर्ष्या, वैमनस्य के भाव मन में न आने दें, कलह क्लेश से दूर रहे, आपसी सौहार्द बनाये। एक-दूसरे के प्रति यथा योग्य सम्मान और स्नेह रहेगा तो मन शांत रहेगा। मन शांत रहेगा तो प्रभु की पूजा-अर्चना में भी लगेगा, मनोवांछित की प्राप्ति भी होगी।