एक कंजूस करोडपति ने जिसने अनैतिक मार्ग से अकूत धन अर्जित किया। पुण्य कर्मों का उदय होने के कारण सद्विवेक जागृत होते प्रायश्चित के रूप में प्रभु से प्रार्थना की हे जगदीश्वर मेरे पास ऐसी अकूत लक्ष्मी पड़ी हुई है जो कि अजुष्टा है, सज्जनों के लिए सेवित नहीं होती हो कि किसी की प्रीतिमय सेवा में नहीं आती वह वास्तव में किसी काम की नहीं है।
वह लक्ष्मी ‘लक्ष्मी’ ही नहीं है। वह दुराचार बढ़ाने का कारण हो सकती है। ‘अजुष्टा’ लक्ष्मी पतन का भारी प्रलोभन होती है। ऐसा धन बुरे कार्यों में ही नष्ट हुआ करता है। अपने स्वाभाव के कारण मैं उसका मोह त्याग नहीं कर पा रहा हूं। उसका मैं परहित में उपयोग भी नहीं कर पा रहा हूं।
यह यूं ही सड़कर नष्ट हो जाने वाला है। यह मुझे छोडऩा भी नहीं चाहता या यूं कहे कि मैं ही इसे छोडऩा नहीं चाहता। यदि मैंने इसे नहीं छोड़ा तो यह मुझे ही बर्बाद कर देगा। हे प्रेरक प्रभो मुझमें इतना साहस दे मैं उस धन को इससे पहले कि मुझे पूर्ण रूप से पतित कर दे मैं उसे अन्यत्र धारित कर दूं। किसी अच्छे कार्य में लगा दूं, उसे अपने पर लादे न रक्खू। हे सेवित: तुम ही उस दुर्लक्ष्मी को मेरे यहां से हटा दो। यह लक्ष्मी नहीं है वह तो मेरे लिए विनाशक शाप रूप है। मेरे उसके प्रति मोह के कारण वह मुझसे चिपटी हुई है। मेरे जीवन रस को सुखा रही है, उसके प्रति मेरे मोह को समाप्त कर दो।