यदि हम चाहते हैं कि हमको सदा सुख ही प्राप्त हो, दुख का दर्शन स्वप्न में भी न हो तो इस हेतु परमात्मा का स्मरण सदैव करना चाहिए। मनुष्य की आत्मा प्रभु स्मरण मात्र से ही पवित्र हो जाती है। स्मृति का कथन है कि जो क्षण भगवान के चिंतन के बिना व्यतीत हो वह बड़ी हानि है, भ्रांति है, विपत्ति है। हनुमान जी का भगवान राम को यह कथन ‘कह हनुमंत विपत्ति प्रभु सोई जब तब सुमरिन भजन न होई’ इसकी पुष्टि करता है।
प्रभु भजन ही समस्त सुखों का सेतु है। परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी की भी उपासना न करो। वेद के एक मंत्र में भगवान की कृपा को साध्य एवं साधन मानकर प्रार्थना की गई है कि हे विश्व रूप प्रभो आपसे भिन्न अन्य कोई सुख का प्रदाता नहीं है फिर हम अन्यत्र क्यों भटके? हमें वही सुख चाहिए जो साक्षात आपसे प्राप्त हुआ हो।
संत तुलसीदास ने ऐसे दस स्थान गिनाये हैं, जो हमारी आसक्ति के केन्द्र बिन्दु हैं वे हैं ‘जननी, जनक, बंधु, सुत, दारा, तन, धन, धाम, शुद्ध परिवारा।’ प्रभु भक्ति को सम्पूर्ण रूप से जीवन में उतारने के लिए आवश्यक है कि हम इन दसों सम्बन्धों को इनके साथ अपनी आसक्ति सहित प्रभु के चरणों में अर्पण कर दें। परम सुख की प्राप्ति तभी होगी।