जिस घर में सेवक आज्ञाकारी हो, स्वामी के प्रति निष्ठावान हो, सभी परिवार के सदस्य परस्पर प्रेमभाव से रहते हों, घर में प्रतिदिन यज्ञ होता हो, प्रतिदिन अतिथि सत्कार किया जाता हो, भगवान की भक्ति की जाती हो, अर्जन-पूजन होता हो। परिवार के सदस्य अपने सांसारिक कर्तव्य तन से करते हुए मन में प्रभु का स्मरण करते हों, अपने धन का सदुपयोग दीन-दुखियों की सेवा में भी करते हों, जिस घर में सात्विक आहार किया जाता हो, व्यवहार केवल तन से जबकि परमार्थ तन, मन, धन तीनों से किया जाता हो, उन्हें यह ज्ञान हो कि परमार्थ ही परलोक में उनके काम आयेगा। सब कुछ होते हुए भी जिस घर में समय-समय पर किसी न किसी निमित्त से प्राय: संतों का शुभागमन और सत्संग होता हो, वही गृहस्थाश्रम धन्य है, वहीं गृहस्थाश्रम ज्येष्ठ है, वही गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ है तथा प्रशंसनीय है। ऐसा गृहस्थाश्रम ही मुक्ति का साधन होता है, तपस्या की स्थली होता है। अर्थात उस घर के सदस्य गृहस्थी में रहते हुए भी मोक्ष के अधिकारी होते हैं। उन्हें अलग से तपस्या हेतु वनादि का आश्रय लेने की आवश्यकता नहीं रहती।