प्रत्येक मनुष्य सुखमय जीवन जीना चाहता है। बहुधा सभी लोग अपने आचरण एवं कर्मठता से सांसारिक आवश्यकताओं की प्राप्ति कर ऐसा जीवन जीते हैं तो कुछ लोग भाग्य के सहारे ही सब कुछ पाने का आसरा लगाये रहते हैं। ऐसे लोग ‘भाग्य में लिखा होगा तो सब कुछ मिलेगा सोचकर बैठे रहते हैं तो कुछ लोग भगवान भरोसे सुखद जीवन की कल्पना करते रहते हैं, जबकि सत्य है कि बिना बीज के जैसे कुछ नहीं होता, उसी प्रकार बिना कर्म बीज के आकांक्षाओं का वृक्ष और उस पर फल नहीं लग सकते। धर्म ग्रंथों की व्यवस्था यह नहीं है कि भगवान आपकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर देंगे। धर्म ग्रंथों के बताये रास्ते पर सूझ-बूझ के साथ चलने पर आत्मबल बढ़ता है। महाभारत में युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से पूछा कि भाग्य के सहारे जीना चाहिए या पुरूषार्थ के सहारे। पितामह ने कहा कि धर्म अपनाने एवं उसके अनुसार चलने से व्यक्ति की सोच एवं दृष्टि सुस्पष्ट होती है। वह चमत्कार से भौतिक उपलब्धियों की अपेक्षा नहीं करता वरन धर्मानुसार पुरूषार्थ करके अपनी जीविकोपार्जन करता है। भाग्य के सहारे तो आलसी व्यक्ति जीता है और भाग्य के भरोसे तो पुरूषार्थ करने योगय व्यक्ति भी आलसी हो जाता है।