विचारणीय बात यह है कि हम पदार्थों में ही सुख क्यों खोजते हैं? जबकि वहां सुख होता ही नहीं। यदि इन पदार्थों में सच्चा सुख होता तो मन को इनमें संतुष्टि मिल जानी चाहिए थी और सुख का अभाव महसूस नहीं होना चाहिए था, परन्तु ऐसा तो होता नहीं। कुछ समय के लिए मन शांत होता है, परन्तु सुख की कमी कुछ समय पश्चात सिर उठाने लगती है। मन फिर से अशांत हो उठता है और आरम्भ हो जाता है वहीं क्रम। संसार का कोई भी प्राणी पदार्थ इस स्थिति में नहीं है कि वह सदा अपना स्तर स्थिर रख सके अथवा सर्वदा के लिए अपरिवर्तनीय बना रहे। परिवर्तन संसार का सहज स्वाभाव है और यह परिवर्तन सतत हर क्षण अबाधित रूप से होता रहता है। कोई वस्तु इस परिवर्तन से नहीं बच सकती। परिवर्तन तो अनिवार्य रूप से आयेगा। उसको आधार मान कर मन की एकाग्रता की स्थिति में रखना कहां तक और कब तक और कैसे सम्भव हो पायेगा। अस्थिर आधार अथवा नींव पर अपने को रखकर मानसिक स्थिरता को कल्पना कितनी देर तक की जा सकती है?