हमारी संस्कृति हमारी परम्पराएं महान हैं। जब हम एक दूसरे का अभिवादन करते हैं तो उसमें कुछ रहस्य छिपा है। अहंकार को मनुष्य का बहुत बड़ा शत्रु कहा गया है। हाथ जोड़कर अभिवादन करने से अहंकार का विसर्जन होता है। व्यक्ति में नम्रता आती है।
सारी प्रकृति ही ईश्वर है। उस परमेश्वर का यह साकार रूप है। यह भाव मन में आते ही ऐसी भावदशा बनते ही हमारे हाथ प्रभु के सम्मुख जुड़ जाते हैं। कोई चाह नहीं, कोई कामना नहीं, कोई मांग नहीं, कोई भय नहीं कि कहीं नरक न चला जाऊं। इन सबके कारण और केवल इन सब के लिए वह हाथ नहीं जोड़ रहा।
वह तो अपनी भावनावश ऐसा कर रहा है। सांसारिक वैभव ज्यादा मिले या कम हमारी गरिमा में कोई अंतर पडऩे वाला नहीं है, क्योंकि परमात्मा की कायनात में सर्वश्रेष्ठ मानव योनि को यदि स्वस्थ शरीर प्राप्त है तो उससे बड़ा कुछ है ही नहीं।
हाथ जोडऩे की परम्परा कायम रहनी चाहिए, हाथ फैलाने की नहीं। यदि किसी के हाथ आपके आगे फैलते हैं तो उस जरूरतमंद की सहायता अवश्य करनी चाहिए। यह भारतीय संस्कृति है। हमारी संस्कृति में पूरी वसुधा को ही परिवार माना है। यदि परिवार में कोई अभाव में है तो हमारा कर्तव्य है उसके साथ खड़े हों।