जब हम कहते हैं कि यह संसार अच्छा है या बुरा है तो हमारा तात्पर्य संसार के ईंट, पत्थर, पेड़ों अथवा जानवरों के अच्छे-बुरे होने से नहीं होता वरन मनुष्यों के अच्छे-बुरे होने से होता है, जो इस पृथ्वी पर बसते हैं, संसार अच्छा तभी है, जब उस पर बसने वाले अच्छे हों। मानव के लिए अपने चारों ओर बसे लोगों से सम्बन्ध विच्छेद करके जीवित रहना असम्भव है। मनुष्य अपना सम्बन्ध दूसरे मनुष्यों से बनाकर ही जी सकता है। हर व्यक्ति की कुछ आवश्यकताएं हैं। उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। निरंकुश और बाहुबली व्यक्ति को जो स्वयं को दूसरों के आश्रय और सहायता से स्वार्थ मुक्त मानता है अपनी किसी न किसी आवश्यकता के लिए दूसरों पर आश्रित होना पड़ता है। मानव सम्पर्क से मुक्त होकर कोई भी व्यक्ति जी नहीं सकता। मानव मानव के मध्य के इस सार्वभौम सम्बन्ध को ‘सामाजिक सम्बन्ध’ कहा जाता है। जब हम कहते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, तो ऐसा कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य का अपने चारों ओर बसे अन्य मनुष्यों से एक निश्चित सम्बन्ध होता है। ये सम्बन्ध किस स्तर के हैं उनका एक-दूसरे के प्रति व्यवहार कैसा है उसी से समाज के स्तर का पता चलता है, चूंकि समाज का ही विस्तृत रूप संसार है इसीलिए हम संसार को अच्छा-बुरा कहते हैं।