एक कथा के अनुसार किसी राज्य के राजकुमार को वैराग्य हो गया। उसने विधिवत सन्यास की दीक्षा ली और सन्यासी हो गया। उसने यह संकल्प लिया कि वह संसार में भटक रहे लोगों का उद्धार करेगा और इस क्रम में वह प्रतिदिन दस लोगों को दीक्षा देगा। उसने यह कार्यक्रम आरम्भ कर दिया, परन्तु इसी मध्य उसे एक सुन्दर वैश्या से प्रेम हो गया। वह उसके रूप और उसकी सेवा से उसे वशीभूत हो गया फिर भी उसने दीक्षा देना जरूरी रखा। एक दिन उसने नौ लोगों को दीक्षा दी, परन्तु दसवां व्यक्ति नहीं मिल रहा था। वैश्या विदुषी थी उसे सन्यासी के अपरिपक्व वैराग्य का ज्ञान था। उसने सन्यासी से कहा कि वह दसवां व्यक्ति स्वयं को क्यों नहीं बन जाते। इस पर सन्यासी ने कहा कि मैं तो दीक्षा ले चुका हूं। इस पर वैश्या ने कहा कि तुम्हे एक वैश्या के रूप, उसके यौवन और सेवा ने पकड़ रखा है। अत: तुम्हें ही दीक्षा की आवश्यकता है। सन्यासी को अपनी कमी का आभास हो गया कि मात्र दीक्षा लेने से ज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं वरन सम्यक आचरण की आवश्यकता है उसे यह ज्ञान हो गया कि दीक्षा नहीं आचरण महत्वपूर्ण है।