भले ही सुनने में अटपटा लगे पर है यह सच्चाई कि बहुधा हम जो करते हैं सोए-सोए करते हैं, यंत्रवत करते। जिन चीजों के हम आदि हो जाते हैं वे चीजें अपने आप होने लगती हैं। जब आप पहले पहले कार चलाना सीखते हैं, पूरी सजगता से कार चलाते हैं, आपका पूरा शरीर तंत्र और मस्तिष्क तंत्र कार चलाते समय पूर्ण सजग होता है।
अपने दांये-बांये, आगे और पीछे के बारे में आप पूर्णत: चौकन्ने होते हैं, पर जैसे-जैसे आप कार चलाने में निपुण होते चले जाते हैं वैसे-वैसे आपकी सजगता सहज होती चली जाती है। फिर आपके पैर स्वत: ही ब्रैक पर चले जाते हैं। कब कौन सा गियर डालना है, इसके लिए चिंतन-मनन नहीं करना पड़ता।
आप यंत्रवत होते जाते हैं। जैसे यंत्र स्वत: ही काम करता रहता है वैसे ही आप स्वत: ही कार्य करते रहते हैं। जीवन में हम प्राय: सभी कार्य यंत्रवत करते हैं। खाना खाते हैं, तो यंत्रवत, सोते हैं तो यंत्रवत, हमारा उठना-बैठना, बोलना, चलना, ऑफिस या दुकान जाना जो कुछ भी है, सब यंत्रवत चलता रहता है।
इतना ही नहीं हम मंदिर जाते हैं, वहां पूजा-पाठ करते हैं, माला फेरते हैं, यह सब यंत्रवत चलता है। हमारी क्रियाओं से भाव विदा हो गया है, होश विदा हो गया है, वहां हमारी क्रियाएं होती हैं, हम नहीं होते।