हम परमात्मा से अपेक्षाएं तो बहुत करते हैं, किन्तु यह देखने का कष्ट बिल्कुल नहीं करते कि हममें पात्रता कितनी है, हमने प्रभु की इच्छा के कितने कार्य किये और अपने स्वार्थ के पोषण के लिए प्रभु की इच्छा के विरूद्ध कितने कार्य किये? अपने कुकर्मों के कारण हम प्रभु की कृपाओं से वंचित हो जाते हैं और दोष देते हैं परमात्मा को।
यह मानव प्रकृति है कि जब हम कुछ रचनात्मक और सकारात्मक करेंगे या सोचेंगे तो सकारात्मक वातावरण हम अपने लिए भी चाहेंगे। स्वार्थ पूर्ति को ही प्राथमिकता देना हमारी दुर्बलता है। विचार करने पर एक ही बात सामने आती है यदि हम अपने आदर्शों और जीवन मूल्यों को जिन पर हमें गर्व है, उन्हें बचाये रखना है तो हमें स्वार्थपरता को त्यागना होगा, जो हर पल हमें अपने से निरन्तर दूर करती जा रही है।
सभ्य समाज का दायित्व है कि वह जीवन मूल्यों को सुरक्षित रखने में किसी प्रकार का समझौता न करें तभी समाज में सुख-शान्ति की स्थापना होगी। हमें निराशा प्रतिकूलता नकारात्मक चिंतन से सदैव दूर रहकर सकारात्मक चिंतन के आधार पर कार्य करने की शक्ति, अपना मनोबल, आत्मबल और ऊर्जा एकत्र करनी चाहिए।