जो अपनी आवश्यकताओं में वृद्धि करता रहता है, वह दुखों को ही निमंत्रण देता है, क्योंकि बढ़ती आवश्यकताएं ही दुख का कारण बनती हैं, जो आवश्यकताओं के जाल में घिरा रहता है वह सदैव दुखी रहेगा। यह निश्चित है जो आवश्यकताओं के संसार से परे हो गया उसे शोक कहां।
जो अनिवार्य आवश्यकताएं है, उन्हें तो हमारे पुरूषार्थ के अनुसार भगवान पूरी कर ही देता है, हम रोते तो उसके लिए हैं, जिसकी आवश्यकता वास्तव में हमें थी ही नहीं। उसके चले जाने या पूर्ति न होने से हमें न गम है और न ही खुशी। इसलिए बढ़ी हुई आवश्यकताओं को कम करने का अभ्यास करते रहे।
पूर्ण केवल परमात्मा है, संसार तो अपूर्ण है, इसे पूर्ण करने की चेष्ठा अनादि काल से होती आई, पर यह सदा अपूर्ण ही रहा है और अपूर्ण ही रहेगा फिर इसकी पूर्णता के लिए इतनी हाय तौबा और मारा-मारी क्यों कर रहे हो।