इन्द्रियों के जितने भोग हैं वे सब मेधो के समूह में बिजली की चमक के समान चंचल हैं और आयु-तप्त लोहे पर पड़ी जल की बूंद के समान नाश्वान है। जैसे सर्प से ग्रसा हुआ मेंढक मच्छर को खाने की इच्छा करता है वैसे ही काल के मुख में पहुंचे हुए भी विषयी पुरूष नश्वर भोगों की कामना करते हैं, लक्ष्मी छाया के समान चंचल है, यौवन जल की तरंग के समान क्षणभंगुर है, स्त्री सुख स्वप्न तुल्य है, आयु अल्प है तो भी मनुष्य यह अभिमान कर रहा है कि यह मेरा धन है, यह मेरी स्त्री है, मैं इनका बहुत काल तक भोग करूंगा। भूलो मत कि पिता, माता, पुत्र, भाई दारा, परिवार के लोगों का समागम वैसा ही है, जैसे नदी में बहते हुए दो काष्ठों का मिलाप क्षण भर के लिए हो जाता है और फिर नदी के प्रवाह में पड़कर दोनों का सदा के लिए वियोग हो जाता है।