कोई भी मनुष्य जब अपने लिए भोजन बनायेगा तो उसे स्वादिष्ट बनाने के लिए कई प्रकार के पौष्टिक और स्वादिष्ट पदार्थ मिलाने का प्रयत्न करेगा, किन्तु वह अपने लिये बनाने वाले भोजन में विष नहीं मिलायेगा यह निश्चित है।
यदि मिलाए तो क्या कोई उसे बुद्धिमान कहेगा। वैसे ही कर्म रूपी भोजन का दुख-सुख रूपी फल अपने को ही मिलना और भोगना है तो क्या उस कर्म रूपी भोजन में छल-कपट, पाप रूपी विष क्यों कोई बुद्धिमान व्यक्ति मिलायेगा कदापि ऐसा नहीं करना चाहिए, याद रखने वाली बात यह है कि मन वाणी और कर्म में एकरूपता ही चाहिए।
अज्ञानी के दुष्कर्म तो क्षमा योग्य है, क्योंकि उसे ज्ञान ही नहीं है कि क्या सत्य है क्या असत्य है क्या कर्मण्य है क्या अकर्मण्य है, किन्तु जिसे ज्ञान है वह उसे विपरीत करे तो यह उसके द्वारा अपने ज्ञान का अपमान है और ज्ञान का अपमान स्वयं का अपमान है।