ईश्वर का द्वार सबके लिए खुला है और समान रूप से खुला है। उसमें जो भी चाहे प्रवेश कर सकता है। सूरज नित्य उदय होता है और अपनी राह पर चलता जाता है। हम चाहे तो धूप में पहुंचकर उससे मिल सकते हैं। यदि घर में बैठे रहे और आंखे बंद कर ले तो फिर उससे मिलना असम्भव है।
सूर्य से कृपा की याचना करना व्यर्थ है वह तो हम पर अनवरत कृपा बरसा रहा है। बंद तो हमने अपने दरवाजे और अपनी आंखे कर ली हैं। खोलना तो इन्हीं को है। कृपा तो अपने ऊपर अपने आपको करनी है, अंधा यह सोचे कि मेरी तो आंखे ठीक हैं केवल दुनिया ही अंधेरी हो गई है फिर वस्तुस्थिति को समझना बहुत कठिन है।
भगवान ही रूष्ट हो गये हैं और मैं अपने कृतित्व से संतुष्ट हूं यह माना जाता रहा तो फिर समाधान होना असम्भव हो जायेगा। उसकी कृपा का पात्र बनना है तो दृष्टिकोण हमें ही अपना बदलना होगा।