जैसे रेलगाडी में यात्रा करने वाले यात्रियों को परस्पर किसी से मिलाप किसी से बिछोह होता रहता है, वैसे ही इस जगत रूपी रेलगाडी के गृहस्थाश्रम रूपी डिब्बे में माता-पिता, पति-पत्नी आदि यात्रियों का भी किसी से बिछोह और किसी से मिलाप होता रहता है। माता-पिता, दादा-दादी बनकर मर कर जाते रहते हैं और बेटे-बेटी, पोते-पोती बनकर नये आते रहते हैं। इस प्रकार यात्रा रूपी सम्बन्धी एक से बिछुडकर दूसरे से मिलते रहते हैं। सम्बन्धियों की तो क्या बात अपने ही शरीर में प्रतीत होने वाली बाल किशोर तरूण, प्रौढादि अवस्थाओं का भी क्रमश: योग-वियोग होता ही रहता है और एक दिन इस शरीर से पूर्ण वियोग हो जाता है। संयोग हुआ है तो वियोग निश्चित है, यही प्रकृति का नियम है, वियोग के समय का किसी को भी ज्ञान नहीं है। इसलिए जब तक जीवन है, यह शरीर है, तब तक वे कार्य करते रहे जो तुम्हें करने चाहिए। अपनी क्षमताओं का पूर्ण रूपेण सदुपयोग करते रहे। अपने साथ-साथ दूसरों के लिए भी सोचे, ताकि मृत्यु के समय इस शरीर को छोडते हुए हम शांत और संतुष्ट रहें।