भौतिकता में कदम बढ़ते हैं तो महत्वाकांक्षाएं जन्म लेती हैं, जो ईर्ष्या, द्वेष, जलन और अमर्यादित प्रतिस्पर्धाएं पैदा करती हैं। असत्य और अनैतिकता का सहारा लिया जाता है। एक-दूसरे में अविश्वास की भावना घर कर लेती हैं। न्याय अन्याय में बदलने लगता है। प्रेम का स्थान घृणा ले लेती है। प्रभु के प्रति सच्ची भक्ति का स्थान मात्र दिखावा ही ले लेता है। धर्मानुसार परिश्रम और नैतिक मार्ग से जो मिले उसी में संतोष करना सीखो। धन तथा भौतिक पदार्थों के संचय में किसी से प्रतिस्पर्धा न करे, क्योंकि इनकी प्रतिस्पर्धा व्यक्ति को पाप मार्ग पर चलने को बाध्य कर देती है। न धन कमाना बुरा, न धन का संचय बुरा और न ही कमाये धन का त्याग करना बुरा। तीनों ही अनिवार्य है, किन्तु तीनों के मध्य एक विवेकपूर्ण संतुलन रखना बहुत जरूरी है। यदि कमायेगे नहीं तो संचय क्या करेंगे। यदि संचय धन नहीं है तो त्याग (यज्ञ दान तथा परहित कार्यों में) क्या करेंगे, यदि केवल धन का संचय ही किया और त्याग न किया तो उस धन का क्या उपयोग जिसमें किसी का लाभ न हुआ। क्षमता से अधिक त्याग किया तो दुख और उपयोग जिसमें किसी का लाभ न हुआ। क्षमता से अधिक त्याग किया तो दुख और पश्चाताप। नैतिक अनैतिक का विचार किये बिना ही कमाना तो पाप के भागी।