सच्चरित्रता आत्मा की अभिव्यक्ति है मानव हृदय की भाषा है। जब व्यक्ति चारित्रिक रूप से निर्मल और उत्कृष्ट होता है, तभी उसे मानव कहलाने का अधिकार प्राप्त होता है। व्यक्ति सदा निर्दोष है, उसके अवगुण ही उसे दोष बनाते हैं मानव को दानव तक बना देते हैंँ। यदि हम अपने को दोषों से मुक्त कर ले तो हम सभी के प्रिय होने के साथ प्रभु के भी प्रिय हो जायेंगे, किन्तु हमारी दुर्बलता यह है कि हमारी दृष्टि हमारे अपने दोषों को दूर कराने की सद्इच्छा है तो ही हम उनके दोषों को केवल उन्हीं के सम्मुख बताकर उनको दूर करने का परामर्श दे सकते हैं। यदि हम उन्हें उनके पीछे दूसरों के सन्मुख कहेंगे तो यह निंदा और उनके प्रति आपकी दुर्भावना मानी जायेगी। हमारा चरित्र एक स्वच्छ तालाब की भांति है। यदि हम उसके जल को मल-मूत्र अथवा मैले वस्त्र धोकर दूषित करेंगे तो वह प्रयोग करने योग्य भी नहीं रह जायेगा। इसलिए परदोष दर्शन तथा निंदा के अवगुण से दूषित न करें, बल्कि आत्मविश्लेषण कर निज दोषों को दूर कर अधिक स्वच्छ बनाने का प्रयास करें।